सतीश कुमार; २८ मार्च २००९
१९९७ में न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार के मुद्दे पर काफी बवाल खडा हुआ था। जन आक्रोश को देखते हुए उस वक्त सुप्रीम कोर्ट के जजों ने ७ मई १९९७ को एक मीटिंग करके प्रस्ताव पारित किया, जिसमे कहा गया कि सभी जज अपनी सम्पत्ति का विस्तृत ब्यौरा मुख्य न्यायाधीश को देंगे, जिसमे उनके दम्पति और आश्रित बच्चों की सम्पत्ति का विवरण भी शामिल होगा. इस प्रस्ताव पर बाद के वर्षों में क्या कार्रवाई हुई, कोई नही जानता।
इसी बीच अफसरशाही द्वारा खड़ी की गई बाधाओं के कारण लंबे समय तक लटकने के बाद, जन दबाव के चलते, आखिरकार संसद में 'सूचना अधिकार अधिनियम' पारित हो गया। वर्ष २००५ में इस अधिनियम के लागू हो जाने के बाद, विभिन्न विभागों और संस्थानों की तरह सुप्रीम कोर्ट में भी सूचना अधिकारी की नियुक्ति हुई। दिल्ली के एक नागरिक, सुभाष चंद्र अग्रवाल ने सुप्रीम कोर्ट के सूचना अधिकारी से 'सूचना अधिकार अधिनियम' के तहत आवेदन कर यह सूचना मांगी कि क्या ७ मई १९९७ के प्रस्ताव के तहत, सुप्रीम कोर्ट के सभी जजों ने मुख्य न्यायाधीश को अपनी संपत्ति के विवरण दे दिए हैं?
सुप्रीम कोर्ट के सूचना अधिकारी ने इस आवेदन को यह कहते हुए निरस्त कर दिया कि मुख्य न्यायाधीश को दी गई सूचना व्यक्तिगत और गोपनीय प्रकृति की है जिसे जारी न करने के लिए अधिनियम की धारा ८(१)(जे), सूचना अधिकारी को अधिकृत करती है और यह कि कोई कानून सुप्रीम कोर्ट के जजों को अपनी संपत्ति का ब्यौरा देने के लिए बाध्य नहीं करता। उल्लेखनीय है कि आवेदक ने जजों की संपत्ति का ब्यौरा माँगा ही नही था, उसने तो सिर्फ़ यह जानना चाहा था कि क्या सुप्रीम कोर्ट के जजों ने अपने ही पास किए प्रस्ताव की अनुपालना की है, जबकि सुप्रीम कोर्ट के सूचना अधिकारी ने आवेदन को इस आधार पर खारिज कर दिया कि भारत का संविधान या कोई अन्य कानून, जजों को अपनी संपत्ति का ब्यौरा देने के लिए निर्देशित नहीं करता।
आवेदक ने इस आदेश के विरुद्ध अपीलीय सूचना अधिकारी के समक्ष अपील की, मगर वह भी खारिज कर दी गई। दूसरी अपील मुख्य सूचना अधिकारी को की गई, जिसने कोई दबाव न मानते हुए, ६ जनवरी २००९ के अपने निर्णय के जरिये, सुप्रीम कोर्ट को निर्देश दिया कि वह आवेदक को मांगी गई सूचना उपलब्ध कराए।
मगर सूचना न देने के लिए कटिबद्ध, सुप्रीम कोर्ट ने इस निर्णय को मानने से इंकार करते हुए, निर्णय के खिलाफ दिल्ली हाई कोर्ट में रिट याचिका दाखिल कर दी। १९ जनवरी २००९ को हाई कोर्ट ने मुख्य सूचना अधिकारी के निर्णय पर रोक लगा दी। हाई कोर्ट ने ऍफ़.एस.नारीमन को इस मामले में कोर्ट सहायक नियुक्त किया, परन्तु उन्होंने यह कहते हुए इस नियुक्ति को स्वीकार करने से इनकार कर दिया कि वे ख़ुद इस बात के पक्षपाती हैं कि जजों को बिना आवेदन ही अपनी संपत्ति घोषित करनी चाहिए। इससे सुप्रीम कोर्ट की खासी किरकिरी हुई। मगर फ़िर भी जिद यह कि सूचना नहीं दी जाए।
सबसे मजेदार बात रही वे तर्क जो सुप्रीम कोर्ट की तरफ़ से रखे गए। कहा गया कि संपत्ति की घोषणा न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए घातक है चूंकि इस सूचना का 'दुरुपयोग' किया जा सकता है।
मजेदार बात तो यह है कि 'सूचना अधिकार अधिनियम' आने से भी पहले ख़ुद सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले- 'दिनेश त्रिवेदी बनाम भारत सरकार' में कहा था कि सूचना प्राप्त करने का अधिकार, भाषण और अभिव्यक्ति के अधिकार का अंग है, और संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों में से एक है। लेकिन यह नसीहत तो सिर्फ़ दूसरों के लिए थी, अपनी बारी आई तो सारे मानदंड पलट गए।
दिल्ली उच्च न्यायालय के जज रवीन्द्र भट्ट, जो अपने वाम जनवादी रुझान के लिए जाने जाते हैं, को उद्धृत करते हुए राष्ट्रीय अखबारों ने लिखा कि आवेदक के वकील के इस कथन पर कि लोक सभा और विधान सभा के सदस्यों को भी संपत्ति का ब्यौरा देना आवश्यक है, जज ने टिप्पणी करते हुए कहा की "संपत्ति घोषणा के मामले में जजों को नेताओं के समकक्ष नहीं रखा जा सकता क्योंकि इस सूचना का दुरूपयोग हो सकता है। न्यायाधीश का मत था कि जनहित के पैमाने न्यायपालिका के लिए दूसरी संस्थाओं से अलग होने चाहियें। अतः इस मामले में जजों को जन प्रतिनिधियों से अलग समझा जाना चाहिए।" न्यायाधीश ने आगे कहा कि न्यायपालिका के सञ्चालन के लिए जजों को क़ानून के अनुसार और निडर होकर कार्य करना पड़ता है, अतः उन्हें हर प्रकार के भय से मुक्त होना चाहिए।" उन्होंने यह भी कहा की "चुनाव आयोग और दूसरी संस्थाएं इसीलिए कार्य कर पा रही हैं चूंकि वे स्वतंत्र हैं।" आगे उन्होंने कहा कि "यदि कोई जज अपनी संपत्ति की घोषणा न करना चाहे तो कोई क़ानून उसे ऐसा करने के लिए बाध्य नहीं कर सकता।" सवाल यह है की क्या जज अपनी संपत्ति का ब्यौरा आयकर विभाग को नहीं देते? मगर जो बात आयकर अधिकारी जान सकता है, वह साधारण नागरिक को नहीं जाननी चाहिए, तब इसका दुरूपयोग हो सकता है। जज साहब ने यह स्पष्ट नहीं किया कि संपत्ति की घोषणा का उनकी दृष्टि में दुरूपयोग कैसे किया जा सकता है। संपत्ति की घोषणा सिर्फ़ दो ही तथ्य प्रकट कर सकती है, अब आप उसे उपयोग मानें या दुरूपयोग। पहला यह कि घोषित की गई संपत्ति, सम्बंधित व्यक्ति की आय के ज्ञात स्रोतों से अधिक है या फ़िर यह कि सम्बंधित व्यक्ति सम्पत्तिवान सामाजिक वर्ग से सम्बन्ध रखता है। निश्चित रूप से यह दोनों ही मामले ऐसे हैं जिनका 'दुरुपयोग' यह दिखाने के लिए किया जा सकता है कि या तो सम्बंधित व्यक्ति की संपत्ति उसकी आय के अनुपात में नहीं है या फ़िर वह समाज के सम्पत्तिशाली वर्ग से आया है। ये दोनों ही सूचना न्यायपालिका की दृष्टि में 'खतरनाक' हैं चूंकि इनका 'दुरुपयोग' किया जा सकता है!
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