वर्कर्स सोशलिस्ट पार्टी / १३ जून २०१३
यह लेख, ‘शहीद भगत सिंह दिशा मंच’ की ओर से, उसके स्वयंभू स्तालिनवादी नेता श्यामसुंदर द्वारा प्रकाशित दो लेखों, ‘कलायत बहस जारी रहे’ (२८.०९.२०१२) और ‘कलायत बहस के निष्कर्ष में’ (१८.१०.२०१२), में क्रान्तिकारी मार्क्सवाद और अक्टूबर क्रांति की शिक्षाओं को विकृत करने के प्रयासों के विरुद्ध निर्देशित है. ये दोनों लेख श्यामजी ने एक अन्य स्तालिनवादी ग्रुप ‘प्रेक्सिस कलेक्टिव’ के साथ बहस में लिखे थे.
यह लेख, ‘शहीद भगत सिंह दिशा मंच’ की ओर से, उसके स्वयंभू स्तालिनवादी नेता श्यामसुंदर द्वारा प्रकाशित दो लेखों, ‘कलायत बहस जारी रहे’ (२८.०९.२०१२) और ‘कलायत बहस के निष्कर्ष में’ (१८.१०.२०१२), में क्रान्तिकारी मार्क्सवाद और अक्टूबर क्रांति की शिक्षाओं को विकृत करने के प्रयासों के विरुद्ध निर्देशित है. ये दोनों लेख श्यामजी ने एक अन्य स्तालिनवादी ग्रुप ‘प्रेक्सिस कलेक्टिव’ के साथ बहस में लिखे थे.
हमने बहस में दखल दिया, चूंकि इन दोनों ग्रुपों ने, एक दूसरे के विरुद्ध इस बहस में न सिर्फ अक्टूबर क्रांति और उसके महान नेताओं, लेनिन और ट्रोट्स्की, की शिक्षाओं को धुंधला, बल्कि कलंकित किया है. एक-दूसरे के ख़िलाफ़ निंदनीय शब्दावली के प्रयोग के अलावा, इन्होने मनमाने ढंग से, बिना पढ़े-समझे ही अपने पूर्वाग्रहों को इन नेताओं पर मढ़ने का कुत्सित प्रयास किया है.
इस बहस में दखल देते हुए, हमने पहले ही, प्रेक्सिस-कलेक्टिव के खोखले प्रस्ताव को, जिसे उसने ‘नई समाजवादी क्रांति’ कहना शुरू किया है, छह लेखों की श्रृंखला में खंडित कर दिया है, जो हमारी वेबसाइट के इस लिंक पर देखे जा सकते हैं: http://new-wave-nw.blogspot.in/2013/04/against-schema-of-democratic.html.
प्रस्तुत लेख में हम श्यामजी द्वारा, मार्क्सवाद और सर्वहारा क्रांति के विषय में उनसे पहले भी हजारों बार दोहराए गए स्तालिनवादी झूठ की ऐतिहासिक-राजनीतिक आधारहीनता को अनावृत करेंगे और अक्टूबर क्रांति की सही यांत्रिकी को समझने की कोशिश करेंगे.
श्यामसुन्दर के लेखों में जो बिंदु उठाए गए हैं उनका सार संक्षेप यह है:
१. क्रांति का प्रश्न महज़ राजसत्ता का प्रश्न है, इसलिए सत्ता किस वर्ग के हाथ में है, उसी से क्रांति का चरित्र निर्धारण होगा.
२. पूंजीपति वर्ग के,सत्ता में आए बिना, समाजवादी क्रांति का प्रश्न नहीं उठाया जा सकता.
३. फरवरी १९१७ की रूसी क्रांति में पूंजीपति वर्ग के सत्ता में आ जाने के बाद लेनिन ने समाजवादी क्रांति का नारा दिया था.
४. क्रांति के दो स्वतन्त्र चरण हैं - जनवादी और समाजवादी.
५. जनवादी क्रांति, पूंजीपति वर्ग के सत्ता में आ जाने से संपन्न हो जाती है.
६. सर्वहारा का अधिनायकत्व, सिर्फ समाजवादी क्रांति में ही प्रकट हो सकता है, जनवादी क्रांति में नहीं.
७. जनवादी क्रांति में पूंजीपति वर्ग का अधिनायकत्व हो सकता है, मगर सर्वहारा का नहीं.
८. लेनिन के फ़ॉर्मूले‘जनवादी अधिनायकत्व’ का अर्थ है मजदूर-किसान दो-वर्गों का ‘संयुक्त अधिनायकत्व’.
९. लेनिन द्वारा प्रस्तावित ‘जनवादी अधिनायकत्व’, ‘किसानो द्वारा समर्थित सर्वहारा का एकल अधिनायकत्व’ नहीं है.
१०. रूस की फरवरी क्रांति में मेंशेविकों का सूत्र सफल रहा, लेनिन और ट्रोट्स्की का असफल.
११. ट्रोट्स्की बिना मजदूर-किसान संश्रय के निरंकुश जारशाही के चलते समाजवादी क्रांति का नारा दे रहे थे. वह बुर्जुआ जनवादी मंजिल को लांघकर समाजवादी क्रांति की बात कर रहे थे.
१२. उत्पादन संबंधों के उन्नत या पिछड़े होने का क्रांति के चरण निर्धारण से कोई सम्बन्ध नहीं है
उपरोक्त प्रस्थापनाओ के पक्ष में, श्यामजी के दोनों लेख ऐतिहासिक सन्दर्भ से बेरहमी से काटकर अलग किए गए कालग्रस्त उद्धरणों और आधारहीन फिकरेबाजी से सराबोर हैं. इसी फिकरेबाजी के चलते, श्यामजी बहस के तथाकथित ‘मूल विषय’ को उठाते हैं. उनके लिए बहस का ‘मूल विषय’ यह नहीं है कि किस तरह स्टालिन के नेतृत्व में सीपीआई की ब्रिटिश पूंजीपतियों से मिलीभगत के चलते देश में कम्युनिस्ट आन्दोलन हाशिये पर जा लगा, किस तरह भगत सिंह और उसके साथियों को फांसी देने से शुरू हुए दमन चक्र के चलते ब्रिटिश और भारतीय पूंजीपतियों ने मिलकर क्रान्तिकारी उपनिवेश-विरोधी आन्दोलन का सफाया कर दिया, भारतीय उपमहाद्वीप के टुकड़े कर दिए, नौसेना के विद्रोह को कुचल दिया, किस तरह क्रांति की बुझी हुई राख पर चैन से बैठकर ब्रिटिश पूंजीपतियों ने सत्ता भारतीय पूंजीपतियों को हस्तांतरित कर दी और किस तरह सीपीआई इस पूरे दौर में स्टालिन के निर्देश पर पहले ब्रिटिश और फिर भारतीय पूंजीपतियों की सत्ता के साथ चिपकी रही.
कहने की जरूरत नहीं कि ट्रोट्स्की किसी भी तरह मजदूर-किसानो के संश्रय को अनदेखा नहीं कर रहा था, उलटे सतत क्रांति की ट्रोट्स्की की पूरी थीसिस, रूस में मजदूर-किसानो के इसी संश्रय पर आधारित है. श्यामजी का दूसरा आरोप कि ट्रोट्स्की ‘समाजवादी क्रांति की मंजिल’ का नारा दे रहा था, कोरी गप्प और पूर्वाग्रह है. यहाँ श्यामजी ने यह नहीं बताया कि ट्रोट्स्की का समाजवादी क्रांति का वह नारा था क्या. यह नारा वही था जो फरवरी १९१७ में लेनिन दे रहा था- “सारी सत्ता सोवियतों को दो”. ट्रोट्स्की यही कह रहा था, किसानो के संश्रय पर आधारित सर्वहारा की तानाशाही. मगर यह तो जनवादी नारा था. दरअसल सर्वहारा अधिनायकत्व को समाजवादी क्रांति से जोड़कर देखते हुए,स्तालिनवादी चश्मा पहने श्यामजी को सर्वहारा अधिनायकत्व का नारा तत्वतः समाजवादी नारा प्रतीत होता है. श्यामजी ने सर्वहारा क्रांति को मनमाने ढंग से जनवादी और समाजवादी दो मंजिलों में बांटकर, अपने मस्तिष्क के दो अलग-अलग हिस्सों में कैद कर दिया है.
श्यामसुन्दर के लेखों में जो बिंदु उठाए गए हैं उनका सार संक्षेप यह है:
१. क्रांति का प्रश्न महज़ राजसत्ता का प्रश्न है, इसलिए सत्ता किस वर्ग के हाथ में है, उसी से क्रांति का चरित्र निर्धारण होगा.
३. फरवरी १९१७ की रूसी क्रांति में पूंजीपति वर्ग के सत्ता में आ जाने के बाद लेनिन ने समाजवादी क्रांति का नारा दिया था.
४. क्रांति के दो स्वतन्त्र चरण हैं - जनवादी और समाजवादी.
५. जनवादी क्रांति, पूंजीपति वर्ग के सत्ता में आ जाने से संपन्न हो जाती है.
६. सर्वहारा का अधिनायकत्व, सिर्फ समाजवादी क्रांति में ही प्रकट हो सकता है, जनवादी क्रांति में नहीं.
७. जनवादी क्रांति में पूंजीपति वर्ग का अधिनायकत्व हो सकता है, मगर सर्वहारा का नहीं.
८. लेनिन के फ़ॉर्मूले‘जनवादी अधिनायकत्व’ का अर्थ है मजदूर-किसान दो-वर्गों का ‘संयुक्त अधिनायकत्व’.
९. लेनिन द्वारा प्रस्तावित ‘जनवादी अधिनायकत्व’, ‘किसानो द्वारा समर्थित सर्वहारा का एकल अधिनायकत्व’ नहीं है.
१०. रूस की फरवरी क्रांति में मेंशेविकों का सूत्र सफल रहा, लेनिन और ट्रोट्स्की का असफल.
११. ट्रोट्स्की बिना मजदूर-किसान संश्रय के निरंकुश जारशाही के चलते समाजवादी क्रांति का नारा दे रहे थे. वह बुर्जुआ जनवादी मंजिल को लांघकर समाजवादी क्रांति की बात कर रहे थे.
१२. उत्पादन संबंधों के उन्नत या पिछड़े होने का क्रांति के चरण निर्धारण से कोई सम्बन्ध नहीं है
उपरोक्त प्रस्थापनाओ के पक्ष में, श्यामजी के दोनों लेख ऐतिहासिक सन्दर्भ से बेरहमी से काटकर अलग किए गए कालग्रस्त उद्धरणों और आधारहीन फिकरेबाजी से सराबोर हैं. इसी फिकरेबाजी के चलते, श्यामजी बहस के तथाकथित ‘मूल विषय’ को उठाते हैं. उनके लिए बहस का ‘मूल विषय’ यह नहीं है कि किस तरह स्टालिन के नेतृत्व में सीपीआई की ब्रिटिश पूंजीपतियों से मिलीभगत के चलते देश में कम्युनिस्ट आन्दोलन हाशिये पर जा लगा, किस तरह भगत सिंह और उसके साथियों को फांसी देने से शुरू हुए दमन चक्र के चलते ब्रिटिश और भारतीय पूंजीपतियों ने मिलकर क्रान्तिकारी उपनिवेश-विरोधी आन्दोलन का सफाया कर दिया, भारतीय उपमहाद्वीप के टुकड़े कर दिए, नौसेना के विद्रोह को कुचल दिया, किस तरह क्रांति की बुझी हुई राख पर चैन से बैठकर ब्रिटिश पूंजीपतियों ने सत्ता भारतीय पूंजीपतियों को हस्तांतरित कर दी और किस तरह सीपीआई इस पूरे दौर में स्टालिन के निर्देश पर पहले ब्रिटिश और फिर भारतीय पूंजीपतियों की सत्ता के साथ चिपकी रही.
उनके लिए बहस का ‘मूल विषय’ है- यह तय करना कि १९४७ के बाद भारत, क्रांति की किस मंजिल में दाखिल हो गया था- यानि अभी जनवादी क्रांति ही जारी थी या फिर समाजवादी क्रांति का ‘रणनीतिक नारा दिया जा सकता था’. (‘नारा दिया जा सकता था’...न कि विश्लेषण किया जाना था....यह है वह अर्थहीन फिकरेबाज़ी......हंसिये मत) श्याम सुन्दर के अनुसार १९४७ के बाद समाजवादी क्रांति का ‘नारा दिया जा सकता था’, चूंकि राजनीतिक सत्ता अब पूंजीपति वर्ग के हाथ में आ गयी थी. श्याम सुन्दर यहाँ इस बात को अनदेखा कर देते हैं कि भारत में तो सत्ता पहले से ही पूंजीपति वर्ग के हाथ में थी, ब्रिटिश पूंजीपति वर्ग के हाथ.१९४७ में तो सत्ता केवल पूंजीपति वर्ग के भारतीय हिस्से को हस्तान्तरित हुई थी.इसलिए यदि पूंजीपति वर्ग के सत्ता में आने पर ही क्रांति को समाजवादी मंजिल में दाखिल हो जाना था, तब तो सदियों पहले भारत समाजवादी क्रांति की मंजिल में दाखिल हो गया था, न कि १९४७ में. और अपनी इस ज्यामितीय प्रमेय से श्यामजी ही सिद्ध करेंगे कि समाजवादी क्रांति की मंजिल में दाखिल होने से पहले, उनकी क्रांति ने जनवादी मंजिल को कब पार कर डाला. या फिर श्यामसुंदर की समाजवादी क्रान्ति शुरू होने के लिए, या उनके शब्दों में कहें तो ‘समाजवादी क्रांति का नारा देने के लिए’ पूंजीपति वर्ग का सत्ता में होना काफी नहीं था, बल्कि राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग का सत्ता में आना जरूरी था? (अब हंसिये).
दरअसल, श्याम सुन्दर उस वास्तविक मूल प्रश्न को उठाते ही नहीं हैं जिसे इतिहास की एक निश्चित मंजिल ने रूसी क्रांतिकारियों के सामने ला खड़ा किया था. वह यक्ष प्रश्न था- क्या सर्वहारा रूस जैसे अत्यंत पिछड़े देश में अपना वर्ग अधिनायकत्व स्थापित कर सकता है?रूसी क्रांति ने इसका उत्तर हाँ में दिया. सर्वहारा ने अति-उन्नत यूरोप से पहले,पिछड़े हुए रूस में अक्टूबर १९१७ में सत्ता ले ली और अपना वर्ग अधिनायकत्व स्थापित कर दिया.
फरवरी १९१७ में मजदूर वर्ग के नेताओं ने, बोल्शेविक और मेन्शेविक दोनों ने, हाथ में आई सत्ता, अस्थायी सरकार के सुपुर्द कर दी और राजनीतिक रूप से पूरी तरह अक्षम पूंजीपति वर्ग को सत्ता में आने दिया. बोल्शेविक-मेन्शेविक नेताओं के हिसाब से अभी जनवादी क्रांति जारी थी इसलिए सर्वहारा सत्ता में नहीं आ सकता था. उन्होंने सत्ता लेने से मना कर दिया और स्वेच्छा से सत्ता पूंजीवादी अस्थायी सरकार को सौंप दी. पूंजीपति वर्ग सत्ता में आ गया चूंकि सर्वहारा के नेता और उसकी पार्टियाँ सत्ता लेने के लिए तैयार ही नहीं थे. लेनिन ने अपनी अप्रैल थीसिस के जरिये इस कालातीत लाइन को दुरुस्त किया और पार्टी को सत्ता संघर्ष की ओर पुनर्निर्देशित किया. लेनिन की इस थीसिस का लगभग सभी शीर्ष बोल्शेविक नेताओं ने विरोध किया, चूंकि इन नेताओं के हिसाब से फरवरी की अस्थायी (पूंजीवादी) सरकार जनवादी सरकार थी और क्रांति का कार्यभार जनवादी सरकार को उलटना नहीं बल्कि उसे संश्रय देकर जनवादी क्रांति को आगे बढ़ाना था. इसके विपरीत लेनिन, जिन्होंने ‘अप्रैल थीसिस’ के जरिये सही अवस्थिति ली थी, फरवरी सरकार का तख्ता उलटकर सर्वहारा अधिनायकत्व की स्थापना का प्रस्ताव रख रहे थे. ट्रोट्स्की १९०५ से ही इस अवस्थिति पर था, इसलिए यहाँ लेनिन और ट्रोट्स्की दोनों,बोल्शेविक-मेन्शेविक नेताओं के खिलाफ एक हो गए. जब बोल्शेविक-मेन्शेविक नेता दोनों पार्टियों के विलय के प्रस्ताव सांझे कर रहे थे और मेंशेविकों की भागीदारी वाली पूंजीवादी अस्थायी सरकार को क्रान्तिकारी करार दे रहे थे, तब लेनिन और ट्रोट्स्की दोनों इस सरकार को प्रतिक्रांतिकारी बता रहे थे और सरकार में बैठे मेंशेविकों तथा समाजवादी क्रांतिकारियों के खिलाफ सोवियतों के अन्दर और बाहर संघर्ष के लिए पार्टी और सर्वहारा को ललकार रहे थे. अप्रैल थीसिस के जरिये लेनिन ने बोल्शेविकों को अक्टूबर क्रांति का रास्ता दिखाया और अक्टूबर में सत्ता लेकर सर्वहारा ने उस क्रांति को दोबारा शुरू कर दिया जिसे फरवरी में प्रतिक्रियावादी सरकार ने सत्ता हाथ में लेकर रोक दिया था.
श्यामजी अप्रैल थीसिस के उस ऐतिहासिक महत्व से इंकार करते हैं जिसमें लेनिन ने “मजदूर किसानो के जनवादी अधिनायकत्व” के पुराने बोल्शेविक नारे को नए रूप में सूत्रबद्ध करते हुए, “सारी सत्ता सोवियतों को” का नारा दिया था और साथ ही बोल्शेविकों को इन सोवियतों के अन्दर मेंशेविकों और समाजवादी क्रांतिकारियों के विरुद्ध सर्वहारा (बोल्शेविक)अधिनायकत्व के लिए संघर्ष करने के लिए ललकारा. पुराने सूत्र को तिलांजलि दे दी गई थी,इसलिए नहीं कि वह सूत्र सफल हो चुका था, बल्कि इसलिए कि इतिहास ने दिखा दिया था कि वह नारा न सिर्फ ऐतिहासिक सम्भावना से दूर है बल्कि पूंजीवादी सरकार का समर्थन करने वाले नेताओं के लिए ढाल का काम कर रहा है. श्यामजी जिद करते हैं कि पुराना बोल्शेविक नारा “मजदूर किसानो का साँझा अधिनायकत्व” रूस की क्रांति में वैध था,अप्रैल थीसिस ने उसे प्रतिस्थापित नहीं किया और वह आज भी वैध है. यह पूछते ही, कि क्या फरवरी सरकार इसी नारे का मूर्त रूप थी, जैसा कि बोल्शेविक नेता कह रहे थे,श्यामसुन्दर चक्कर खा जाते हैं. अगर फरवरी सरकार ‘मजदूर किसानो के सांझे अधिनायकत्व’ पर नहीं टिकी थी, तो वो कौन सी सरकार थी, जो इस पर टिकी थी? सोवियतें?मगर पूंजीवादी अस्थायी सरकार, मजदूर-किसानो के सांझे अधिनायकत्व की प्रतिनिधि इन सोवियतों के कंधे पर ही तो टिकी थी.
श्याम सुन्दर का कहना है कि ऐसा इसलिए हुआ चूंकि सोवियतों पर मेंशेविकों का कब्ज़ा था.अभिप्राय यह कि बोल्शेविकों का कब्ज़ा होता तो स्थिति दूसरी होती. पहली बात तो यह कि सोवियतों पर मेंशेविकों का नहीं बल्कि मेंशेविकों,बोल्शेविकों और समाजवादी क्रांतिकारियों का साँझा कब्ज़ा था. मेंशेविकों का बहुमत जरूर था. दूसरी बात यह कि बोल्शेविकों के ‘कब्जे’ से स्थिति बदल जाती, एकदम गलत है.फरवरी १९१७ में बोल्शेविक नीति, मेन्शेविक नीति से अलग नहीं थी. बोल्शेविक नेता न सिर्फ अस्थायी पूंजीवादी सरकार का खुला समर्थन कर रहे थे, बल्कि उसमें शामिल होने के प्रस्ताव पर भी विचार कर रहे थे. इसलिए सोवियतें पूरी तरह भी बोल्शेविक कब्जे में होतीं, तो भी स्थिति यही रहनी थी. बोल्शेविक नेता, पुराने बोल्शेविक फ़ॉर्मूले का पल्ला पकड़े सोवियतों की सत्ता को “मजदूर किसानो का जनवादी अधिनायकत्व” समझ रहे थे और अस्थायी सरकार को उसका राजनीतिक प्रतिनिधित्व. दरअसल, ‘मजदूर किसानो का साँझा अधिनायकत्व’ समर्पित सोवियतों के रूप में, पूंजीपति वर्ग की सत्ता की धुरी बन गया था. बोल्शेविकों की इस गलत समझ ने, जो “जनवादी अधिनायकत्व” के नारे पर आधारित थी, उन्हें सोवियतों के भीतर मेंशेविकों के विरुद्ध संघर्ष करने से रोक दिया और फरवरी क्रांति से उत्पन्न क्रांतिकारी सत्ता को सीधे पूंजीपतियों की झोली में डाल दिया.
इस स्थिति को बदलने के लिए जरूरी था सर्वहारा पार्टी (बोल्शेविक) को क्रांति की तरफ मोड़ना, पूंजीवादी सत्ता को समर्पित सोवियतों के अन्दर मेंशेविकों और समाजवादी-क्रांतिकारियों को पराजित करना और सर्वहारा अधिनायकत्व वाली इन सोवियतों को सत्ता पर एकल नियंत्रण के लिए प्रेरित करना. यहाँ मजदूर-किसान संश्रय पर टिकी जनवादी सोवियतों पर ‘सर्वहारा अधिनायकत्व’ का प्रश्न, सोवियतों द्वारा सत्ता लेने के प्रश्न के साथ एकाकार हो गया था, चूंकि सोवियतें, पूंजीवादी अस्थायी सरकार के विरुद्ध तभी मुड़ सकती थीं जब उन पर अप्रैल थीसिस से निर्देशित बोल्शेविक पार्टी का अधिनायकत्व होता.
श्याम सुन्दर प्रश्न को इस तरह नहीं समझना चाहते. उनकी जिद है कि फरवरी में पूंजीपति वर्ग का सत्ता में आना अक्टूबर में सर्वहारा के सत्ता में आने की पूर्वशर्त था. और इस जरिये से वे १९४७ में भारतीय पूंजीपतियों के सत्ता में आने को भी वैध करार देते हैं. श्याम सुन्दर का कहना है कि रूस में फरवरी १९१७ से पूर्व और भारत में अगस्त १९४७ से पूर्व, समाजवादी क्रांति (श्यामजी, स्तालिनवादी होने के नाते, ‘सर्वहारा अधिनायकत्व’ को समाजवादी क्रांति का नारा मानते हैं) का नारा नहीं दिया जा सकता था.उनके हिसाब से क्रांति की पहली मंजिल -जनवादी मंजिल में- पूंजीपति सत्ता का वैध दावेदार है और जनवादी क्रांति में सर्वहारा अपनी सत्ता (अधिनायकत्व) स्थापित नहीं कर सकता. १९४७ में भारतीय पूंजीपति वर्ग के सत्ता में आने को लेकर वह यह भी भूल जाते हैं कि भारत पर तो पहले से ही पूंजीपतियों का, ब्रिटिश पूंजीपतियों का शासन था और १९४७ में दुनिया के पूंजीपति वर्ग के इन दो हिस्सों के बीच सत्ता का लेन-देन मात्र ही हुआ था. रूस की फरवरी क्रांति जिसकी मुख्य शक्ति सशस्त्र सर्वहारा था,उसके नियमों को भारत पर घटाते हुए श्यामसुन्दर इस बात को अनदेखा करते हैं कि भारतीय पूंजीपति वर्ग क्रांति की लहर पर नहीं, बल्कि उपनिवेश विरोधी क्रांति के हिंसक दमन, जिसमें वह साझीदार था, के बाद ही सत्ता में आया था, और आ सकता था.
श्याम सुन्दर ने बार-बार इस बात का जिक्र किया है कि फरवरी १९१७ में पूंजीपति वर्ग के सत्ता में आ जाने के बाद लेनिन ने ‘समाजवादी क्रांति’ का नारा दिया. (जैसे समाजवादी क्रान्ति का नारा देने के लिए लेनिन इस मौके की इंतज़ार ही कर रहा हो कि कब पूंजीपति वर्ग सत्ता में आए और उसके खिलाफ समाजवादी क्रांति का नारा दिया जाये).श्यामजी के बीजगणित में समाजवादी क्रांति का नारा एक अलग मंजिल को इंगित करता है और यह तभी दिया जा सकता है जब पूंजीपति वर्ग सत्ता में हो. श्यामजी यदि एक बार भी खुद को यह बताने की जेहमत उठा लेते कि तथाकथित ‘समाजवादी क्रांति’ का यह नारा क्या था, तो मामला एकदम साफ़ हो जाता. यह नारा था- “सारी सत्ता सोवियतों को”. मगर सोवियतें तो मजदूर-किसान संश्रय को बिम्बित कर रही थीं, फिर सोवियतों को सत्ता का नारा समाजवादी नारा कैसे हो सकता था? क्या श्यामजी के सपनों की जनवादी क्रांति का नारा कुछ और था, या हो सकता था? क्या इन सोवियतों को फरवरी में ही ‘सारी सत्ता’हाथ में नहीं ले लेनी चाहिए थी या उसके लिए संघर्ष नहीं करना चाहिए था? क्या उन्हें सत्ता हाथ में लेने के लिए पूंजीपति वर्ग के अस्थायी सरकार बना लेने का इंतज़ार करना चाहिए था? क्या लेनिन ने बोल्शेविक और मेन्शेविक नेताओं की ठीक इस बात के लिए आलोचना नहीं की थी कि वे सत्ता के लिए संघर्ष करने में असमर्थ रहे और उन्होंने सत्ता पूंजीपति वर्ग की अस्थायी सरकार को जाने दी? क्या लेनिन “सुदूर से पत्रों” में सोवियतों को सत्ता हाथ में लेने के लिए नहीं ललकार रहे थे?
“सारी सत्ता सोवियतों को”, यदि यह नारा, श्यामजी की ज्यामिति में समाजवादी क्रांति का नारा था, जनवादी क्रांति का नहीं, तो फिर जनवादी क्रांति का नारा क्या था?पूंजीवादी अस्थायी सरकार? या सोवियतों और पूंजीवादी अस्थायी सरकार की दोहरी सत्ता?क्या लेनिन पूंजीवादी अस्थायी सरकार या उसके साथ संश्रय पर टिकी दोहरी सत्ता का अनुमोदन कर रहे थे? जाहिर है कि श्यामजी के भ्रमों से दूर, वास्तव में, “सारी सत्ता सोवियतों को”- ठीक यही नारा जनवादी क्रांति और “जनवादी अधिनायकत्व” को बिम्बित करता था और यह पुराने बोल्शेविक सूत्र “मजदूर-किसान जनवादी अधिनायकत्व” का सटीक प्रतिस्थापन था. साथ ही, इन सोवियतों पर सर्वहारा यानि बोल्शेविकों का दबदबा,जिसे अभी मेंशेविकों के खिलाफ संघर्ष में हासिल किया जाना था, इस “जनवादी अधिनायकत्व” को “सर्वहारा अधिनायकत्व” के तौर पर अक्टूबर में सामने लाने वाला था.क्या मजदूर किसानो की सोवियतों का यह “जनवादी अधिनायकत्व”, सर्वहारा अधिनायकत्व के सिवा कुछ और हो सकता था? कदापि नहीं! चूंकि सोवियतों पर बोल्शेविकों का नियंत्रण हुए बिना, सोवियतें सत्ता लेने के लिए आगे ही नहीं बढ़ सकती थीं. इसलिए मजदूर-किसान सोवियतों का जनवादी अधिनायकत्व, केवल और केवल सर्वहारा अधिनायकत्व में, यानि बोल्शेविक अधिनायकत्व में ही अभिव्यक्त हो सकता था. ये है रूस में सर्वहारा क्रांति का बीजगणित जिसे समझने के लिए स्तालिनवादी स्कूल को तिलांजलि देना अनिवार्य है.
श्यामजी और उन सरीखे स्टालिनवादियों की राजनीति के दिवालियेपन को समझने के लिए, आइये देखें कि फरवरी क्रांति से जुड़े तथ्य क्या हैं:
फरवरी क्रांति के शुरू होते ही मजदूर-सैनिकों (वर्दीधारी किसानों) के संश्रय पर आधारित सोवियतें अस्तित्व में आ गई थीं और लगातार फैलती जा रही थीं. ये सोवियतें सत्ता के वास्तविक केंद्र थीं जिन्होंने क्रांति के आरंभिक दिनों में ही क्रान्तिकारी घोषणाएं कीं और जनवादी क्रांति को तेज़ी से आगे बढाया.
उधर लेनिन और ट्रोट्स्की को छोड़कर, जो विदेश में थे, तमाम मेन्शेविक और बोल्शेविक नेता,श्यामजी की तरह, इस विषय पर एकमत थे कि रूस में शुरू हुई क्रांति का स्वरूप जनवादी है, इसलिए सर्वहारा को अपनी एकल वर्ग सत्ता के लिए दावा पेश नहीं करना चाहिए. इसलिए मेन्शेविक और बोल्शेविक नेतृत्व वाली सोवियतों ने, वास्तविक सत्ता हाथ में होते हुए भी, स्वेच्छा से वह सत्ता पूंजीपति वर्ग को सौंप दी. परिणामतः पूंजीपति वर्ग के नेतृत्व में अस्थायी सरकार अस्तित्व में आ गयी जिसमें मेन्शेविक और समाजवादी क्रान्तिकारी पार्टियाँ शामिल हो गयीं, जबकि,बोल्शेविक नेता, स्टालिन-बुखारिन के नेतृत्व में पूंजीवादी अस्थायी सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे थे.
मेन्शेविको की ही तरह, बोल्शेविक नेताओं की इस समझ ने, कि रूस, बीती सदी की यूरोपीय बूर्जुआ जनवादी क्रान्तियों की तर्ज़ पर, पहले जनवादी और फिर समाजवादी क्रान्ति की दो अलग-अलग मंजिलों से गुजरेगा, कि अभी क्रान्ति पहली (जनवादी) मंजिल में दाखिल हुई है, कि पहली (जनवादी) मंजिल में सर्वहारा सत्ता के लिए दावा नहीं कर सकता, कि अभी सर्वहारा का कार्यभार सत्ता लेना नहीं बल्कि जनवादी क्रांति को आगे बढ़ाना है, कि जनवादी क्रान्ति का विकास ही क्रान्ति की दूसरी (समाजवादी) मंजिल के लिए वह आवश्यक पूर्वाधार तैयार करेगा जिस पर सर्वहारा सत्ता के लिए दावेदारी पेश कर सकेगा,बोल्शेविकों को और उनके नेतृत्व में सर्वहारा को सत्ता लेने से रोक दिया.
क्रान्ति को मंजिलों में बांटने और जनवादी क्रांति को समाजवादी क्रांति से अलग करने के मेन्शेविक और बोल्शेविक फॉर्मूलों की दलदल में फंसे इन नेताओं ने, सत्ता को स्वेच्छा से पूंजीपति वर्ग के हवाले कर दिया.
ट्रोट्स्की,क्रान्ति के दो चरणों में आधारहीन और कृत्रिम विभाजन के इस बोगस सूत्र का, जिसे मेन्शेविक और बोल्शेविक दोनों कैम्पों में मान्यता प्राप्त थी, १९०५ से ही विरोध कर रहा था. ट्रोट्स्की का कहना था कि क्रान्ति के जनवादी और समाजवादी कार्यभारों को अलग-अलग मंजिलों में नहीं बांटा जा सकता, पिछड़े देशों में ये एक दूसरे में घुलमिल गए हैं, एक ही सतत और अविभाज्य श्रृंखला में ऐक्यबद्ध हैं, और इन्हें एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता. ट्रोट्स्की के अनुसार, मजदूर-किसानों के संश्रय(सोवियतों), पर आधारित होकर सर्वहारा को जनवादी क्रांति में सत्ता में आ जाना था,जिसे ट्रोट्स्की ने ‘किसान वर्ग द्वारा समर्थित, सर्वहारा की तानाशाही’ की संज्ञा दी.
‘राजशाही’के खिलाफ संविधान सभा पर आधारित पूंजीवादी जनवाद या मजदूर-किसान सोवियतों पर आधारित सर्वहारा अधिनायकत्व? फरवरी क्रांति के शुरू होने पर इसका जवाब मेन्शेविक और बोल्शेविक नेता पहली प्रस्थापना में ढूंढ रहे थे, लेनिन और ट्रोट्स्की दूसरी में.
मजदूरो-सैनिकों(वर्दीधारी किसानो) की सोवियतों में मजदूर किसानो का राजनीतिक संश्रय मूर्तरूप ले रहा था. अब सर्वहारा अधिनायकत्व का अर्थ था -सारी सत्ता पर इन सोवियतों का नियंत्रण और सोवियतों पर सर्वहारा पार्टी का नियंत्रण. मगर बोल्शेविक नेता न तो सोवियतों पर पार्टी एकाधिकार के लिए और न सत्ता पर सोवियत एकाधिकार के लिए लड़ रहे थे. इसके विपरीत वे सोवियतों के भीतर मेंशेविकों और बाहर पूंजीपतियों की नीति और सत्ता का समर्थन कर रहे थे.
अब श्यामजी से पूछो कि जारशाही के खिलाफ संघर्ष में बोल्शेविकों को सोवियतों पर पार्टी एकाधिकार के लिए नहीं लड़ना चाहिए था या सत्ता पर सोवियत नियंत्रण के लिए?और “जनवादी अधिनायकत्व” का रंग, चरित्र या रणनीतिक नारा क्या “सोवियत सत्ता” के अलावा कुछ और हो सकता था? क्या सोवियतें एक ही साथ- मजदूर किसानों के संश्रय और सर्वहारा अधिनायकत्व- दोनों का उपादान नहीं थीं?
श्यामजी जिसे समाजवादी क्रांति का नारा बता रहे हैं, वह क्या था? “सारी सत्ता सोवियतों को”? यदि यह समाजवादी नारा था तो जनवादी नारा क्या था? सार्विक मताधिकार और संविधान सभा का चुनाव? ठीक यही बात तो बोल्शेविक नेता फरवरी १९१७ में कह रहे थे,जिसके खिलाफ लेनिन लड़ रहा था?
“सारी सत्ता सोवियतों को”, क्या यह नारा अक्टूबर क्रांति के लिए वैध और फरवरी क्रांति के लिए अवैध था? क्या जारशाही के ख़िलाफ़ यह नारा बुलंद नहीं किया जाना चाहिए था और बोल्शेविक नेताओं को अस्थायी सरकार का समर्थन करने के बजाय सर्वहारा को इस नारे के तहत लामबंद नहीं करना चाहिए था? क्या लेनिन यह नारा ठीक फरवरी क्रांति को आगे बढाने के लिए नहीं दे रहे थे? यह नारा क्या बिम्बित कर रहा था -फरवरी क्रांति से विच्छेद या उसकी निरंतरता? क्या फरवरी में सोवियतों पर बोल्शेविक नियंत्रण के लिए और सत्ता पर सोवियतों के नियंत्रण के लिए संघर्ष नहीं हो सकता था या नहीं किया जाना चाहिए था? श्यामजी, और उनकी तरह स्टालिन और माओ के बाकी चेलों के दृष्टिकोण से, जिन्हें यह नारा समाजवादी क्रांति का नारा दिखाई देता है, फरवरी से विच्छेद था और इसे अस्थायी सरकार के सत्ता लेने तक नहीं उठाया जा सकता था. क्रान्तिकारी मार्क्सवाद की इससे बड़ी विकृति और क्या हो सकती है?
सोवियतों पर नियंत्रण के लिए, पूंजीवादी अस्थायी सरकार के घटक मेंशेविकों, से सीधा संघर्ष चलाने की जगह, बोल्शेविक नेता मेंशेविकों से गठजोड़ बनाये थे, उनकी सरकार का समर्थन कर रहे थे और उनके साथ पार्टी विलय के प्रस्ताव रख रहे थे. इस तरह सोवियतों पर सर्वहारा अधिनायकत्व के कार्यक्रम को छिन्न भिन्न कर दिया गया था.
ऐसा करते हुए, बोल्शेविक नेता लेनिन के विरुद्ध वह तर्क दे रहे थे, जिसे श्यामजी दोहरा रहे हैं- कि “सारी सत्ता सोवियतों को” समाजवादी क्रान्ति का रणनीतिक नारा और कार्यक्रम है, जबकि रूस में अभी जनवादी क्रान्ति हो रही है. इस कुतर्क को काटते हुए लेनिन ने अप्रैल थीसिस में स्पष्ट कहा कि जनवादी और समाजवादी कार्यभारों के बीच कोई अलंघ्य दीवार नहीं है. इसका अर्थ था कि दोनों एक ही सतत क्रांति के अवयव मात्र हैं.
जारशाही या पूंजीपति वर्ग, दोनों की सत्ता के ख़िलाफ़, क्रान्तिकारी सर्वहारा का रणनीतिक नारा एक ही हो सकता था- “सारी सत्ता सोवियतों को”. मगर श्यामजी का तर्क है कि सोवियतें सत्ता के लिए तभी संघर्ष कर सकती थीं जब पूंजीपति वर्ग सत्ता में आ गया. पूंजीपति वर्ग को सत्ता से हटाने के लिए ये नारा वैध था, मगर उसे सत्ता में आने से रोकने या जारशाही को सत्ता से हटाने के लिए अवैध.
लेनिन मजदूर-किसानो की जिस “जनवादी तानाशाही” का प्रस्ताव रख रहे थे, सोवियतों की सामानांतर, दोहरी सत्ता के रूप में वह अस्तित्व में तो आई, लेकिन ठीक उस जनवादी तानाशाही ने, बोल्शेविक मेन्शेविक नेताओं के नेतृत्व में, सत्ता स्वेच्छा से पूंजीपतियों को समर्पित कर दी. ऐसा इसलिए हुआ कि बोल्शेविक पार्टी अभी उसी बोगस ‘दो चरणों वाले’ क्रांति के सिद्धांत का ही अनुसरण कर रही थी, जो मुख्यतः मेंशेविकों की प्रस्तावना थी. निर्णायक मोड़ आया लेनिन की अप्रैल थीसिस से, जिसने बोल्शेविक पार्टी के सामने ‘सारी सत्ता सोवियतों को’ देने की मांग करते हुए पूंजीवादी अस्थायी सरकार और इसके घटकों से पूर्ण सम्बन्ध विच्छेद करने और उसे उलटने की मांग की. बोल्शेविक नेताओं ने, जो अस्थायी सरकार का खुला समर्थन कर रहे थे, एकजुट होकर लेनिन का विरोध यह कहते हुए किया कि लेनिन ट्रोट्स्की की अवस्थिति पर चले गए हैं.
रूस में शक्तिहीन पूंजीवादी अस्थायी सरकार उन सोवियतों द्वारा समर्थित थी जो मजदूर-किसानो की ‘जनवादी तानाशाही’ का मूर्त रूप थीं. लेनिन को यह समझते देर नहीं लगी कि तथाकथित“जनवादी अधिनायकत्व”, पूंजीवाद के संश्रय के अलावा और कुछ नहीं हो सकता और केवल सर्वहारा का एकल अधिनायकत्व क्रांति को आगे ले सकता है. लेनिन ने, फ़ौरन ‘जनवादी अधिनायकत्व’के पुराने फ़ॉर्मूले को तिलांजलि देते हुए, ‘सुदूर से पत्रों’ और ‘अप्रैल थीसिस’ के जरिये, मेंशेविकों और समाजवादी क्रान्तिकारियों के खिलाफ सोवियतों के अन्दर नियंत्रण के लिए संघर्ष चलाने और सारी सत्ता सोवियतों को हस्तांतरित करने की मांग रखने के लिए बोल्शेविकों को ललकारा.
फरवरी १९१७ में रूस में पूंजीपति वर्ग के सत्ता में आ जाने के साथ जो प्रतिक्रांति शुरू हुई थी अक्टूबर क्रांति ने उसे परास्त कर दिया था. मगर भारत में अगस्त १९४७ में पूंजीपति वर्ग के नेतृत्व में वह प्रतिक्रांति जारी रही जिसे ४७ से पहले ब्रिटिश पूंजीपति चला रहे थे.
श्यामजी का यह कहना कि फरवरी १९१७ में पूंजीपति वर्ग के सत्ता में आने के बाद लेनिन ने समाजवादी क्रांति का नारा दिया, कोरी गप्प है. लेनिन ने ऐसा कोई नारा नहीं दिया. मेन्शेविक-स्तालिनवादी स्कूल में दीक्षित श्यामजी, संभवतः अनायास ही यह निराधार पूर्वकल्पना कर लेते हैं कि लेनिन द्वारा प्रस्तावित नारा, “सारी सत्ता सोवियतों को”, समाजवादी क्रांति का रणनीतिक नारा है और इसलिए श्यामजी अपनी रंगीन कल्पना में इसे “जनवादी अधिनायकत्व”के खिलाफ खड़ा कर लेते हैं, जबकि इन दोनों नारों में अंतर्य की दृष्टि से कोई भेद है ही नहीं. “सारी सत्ता सोवियतों को”, जिसे श्यामजी समाजवादी क्रांति का उदघोष समझ रहे हैं, वास्तव में क्रांतिकारी जनवाद के उसी कार्यक्रम को ज्यादा स्पष्टता के साथ अभिव्यक्त करता है, जो “जनवादी अधिनायकत्व” में अस्पष्ट था. जिन सोवियतों को सत्ता देने की बात की जा रही है वे तो ठीक वही सोवियतें हैं जो क्रांति के पहले दिन से मौजूद हैं और जिन्होंने सत्ता हाथ में लेने से इंकार कर दिया था. ये सोवियतें सर्वहारा अधिनायकत्व नहीं, बल्कि मजदूर-किसान संश्रय पर ही आधारित हैं और इसलिए सोवियतों की सत्ता फिर से उसी जनवादी संश्रय को प्रतिबिंबित करती हैं. ‘जनवादी अधिनायकत्व’ के अस्पष्ट सूत्र की जगह, अब स्पष्ट सूत्र “सोवियत सत्ता” को दे दी गई है ताकि अस्थायी सरकार और उसके समर्थक बोल्शेविक “जनवादी अधिनायकत्व” के धुंधले पटल के पीछे शरण न ले सके और मजदूर-किसानों के संश्रय पर टिकी सोवियतें अस्थायी सरकार का आलम्ब बनने की जगह उसके विरुद्ध मोर्चा खोल दें. इसलिए “सारी सत्ता सोवियतों को”, यह मांग किसी भी तरह समाजवादी क्रांति का नारा नहीं है. इन दोनों नारों में लेनिन एक ही क्रांति की बात कर रहे हैं. “सारी सत्ता सोवियतों को”, यह नारा श्यामजी की समझ के विपरीत, समाजवादी क्रांति का नहीं बल्कि जनवादी अधिनायकत्व का ही नारा है, जिसका अर्थ है, मजदूर किसानों के संश्रय, सोवियत सत्ता पर आधारित,सर्वहारा का अधिनायकत्व. तो फिर श्यामजी, लेनिन के कौन से नारे की बात कर रहे हैं?ऐसा कोई नारा था ही नहीं! “सारी सत्ता सोवियतों को” यह नारा उसी पुराने “मजदूर किसान जनवादी अधिनायकत्व” को स्थापित करने के लिए आह्वान कर रहा था जिसे फरवरी में बोल्शेविक नेताओं की फिसड्डी स्तालिनवादी नीति के चलते क्रियान्वित नहीं किया जा सकता था. अप्रैल थीसिस ने उसी बोल्शेविक कार्यक्रम की ओर पार्टी को पुनर्निर्देशित किया और अक्टूबर क्रांति ने लेनिन के उसी नारे को मूर्त रूप दिया. लेकिन जनवादी अधिनायकत्व का यह नारा, अक्टूबर में अपनी स्थापना में “किसान वर्ग द्वारा समर्थित सर्वहारा के अधिनायकत्व” के रूप में सामने आया, न कि मजदूर-किसानो के द्विवर्गीय संयुक्त अधिनायकत्व के रूप में, जैसा श्यामजी सहित सभी स्तालिनवादी सोचेते हैं.
श्यामजी अपने तर्क के समर्थन में लेनिन को उद्धृत करते हैं. अप्रैल थीसिस में यह कहते हुए कि “.....उस हद तक रूस में जनवादी क्रांति पूरी हो चुकी है” लेनिन वस्तुतः जारशाही के पतन का हवाला दे रहे हैं, जिसे पूंजीपति वर्ग या उसकी अस्थायी सरकार ने नहीं बल्कि सशस्त्र सर्वहारा ने हासिल किया है. मगर श्यामजी इसे पूंजीपति वर्ग के सत्ता में आने से जोड़ रहे हैं, जिस सत्ता को लेनिन शुरू से अंत तक प्रतिक्रान्तिकारी बताते रहे हैं. समाजवादी क्रांति मं प्रवेश करने की जल्दी में, श्यामजी, “उस हद तक”को अनदेखा करके, “रूस में जनवादी क्रांति पूरी हो चुकी है” पढ़ लेते हैं, और यह अतार्किक निष्कर्ष लेनिन पर मढ़ देते हैं कि अब क्रांति को दूसरी मंजिल -समाजवादी मंजिल- की ओर प्रस्थान करना चाहिए, जबकि इस उक्ति से सीधा सा निष्कर्ष यही निकलता है कि “अब जनवादी क्रांति को ‘उस हद’ से आगे बढ़ाना चाहिए”. मगर सर्वहारा का अधिनायकत्व इस “आगे बढ़ने” की अनिवार्य शर्त है जिसके तहत जनवादी क्रांति आगे बढ़ते हुए समाजवादी क्रांति में प्रवेश करेगी. इसलिए लेनिन, मजदूर किसान संश्रय पर आधारित, सर्वहारा अधिनायकत्व की स्थापना के लिए एक ओर “सारी सत्ता सोवियतो को” का नारा देते हैं और साथ ही सोवियतों के अन्दर नियंत्रण के लिए सर्वहारा पार्टी को, बोल्शेविकों को,ललकारते हैं. बाद में, अक्टूबर क्रांति इसी प्रज्ञान पर मुहर लगाती है. मगर श्यामजी इस मामले को ऐसे पेश करते हैं जैसे लेनिन पूंजीपति वर्ग के सत्ता में आने को जनवादी क्रांति संपन्न होना कह रहा है और जनवादी क्रांति को पीछे छोड़कर,समाजवादी क्रांति की ओर बढ़ने की बात कर रहा है.
लेनिन का‘जनवादी अधिनायकत्व’, मजदूर-किसानो का अधिनायकत्व, वास्तव में सर्वहारा अधिनायकत्व के रूप में ही प्रतिबिंबित होता है और हो सकता है. ‘जनवादी अधिनायकत्व’ को ‘सर्वहारा अधिनायकत्व’ के विरुद्ध खड़ा करने की स्तालिनवादी कोशिशो का अंत, अंततः पूंजीपतियों की बाहों में ही होता है. फरवरी क्रांति के दौरान यही हुआ था, ‘जनवादी अधिनायकत्व’के पुजारी, तमाम बोल्शेविक नेता ल्वोव की पूंजीवादी सरकार के पीछे लाइन लगाकर उसका स्तुति-गान कर रहे थे. लेनिन का यह ‘जनवादी अधिनायकत्व’ अक्टूबर क्रांति में फलीभूत हुआ, मगर दो वर्गों की संयुक्त तानाशाही नहीं, बल्कि सर्वहारा की एकल सत्ता के रूप में.
‘जनवादी अधिनायकत्व’ - इस सूत्र की स्तालिनवादी व्याख्याओं ने, दुनिया भर में बुर्जुआजी के साथ संश्रय कायम करने के एक लम्बे इतिहास को जन्म दिया है. इस नारे की आड़ में स्टालिन-बुखारिन-कामेनेव जैसे नेताओं ने न सिर्फ रूस में फरवरी १९१७ में पूंजीवादी सरकार को समर्थन देते हुए फरवरी में क्रांति का गला घोंटा, बल्कि पूरी दुनिया में इस सूत्र के अगणित लघु-सूत्र गढ़ते हुए, बारम्बार पूंजीपति वर्ग और उसके लगुओं-भगुओं से जा चिपकने के बहाने बना लिए हैं.
देखिये श्याम जी ट्रोट्स्की पर भी मंजिल-वादी होने का आरोप मढ़ते हैं. श्यामजी फरमाते हैं,“ट्रोट्स्की बिना मजदूर-किसान के संश्रय के समाजवादी क्रांति की मंजिल का नारा १९०५ में तब दे रहे थे जब सामंतशाही का निरंकुश राजतन्त्र कायम था”. आइये पहले,श्यामजी के पहले आरोप की पड़ताल करते हैं. देखते हैं कि क्या ट्रोट्स्की १९०५ में मजदूर-किसान संश्रय को अनदेखा कर रहा था. अपने अख़बार ‘नाचालो’ में ३० नवम्बर १९०५ को ट्रोट्स्की ने लिखा, “सर्वहारा, नगर-सोवियतों की स्थापना करता है जो शहरी जनता के संघर्ष का नेतृत्व करती हैं और सैनिकों तथा किसानो के साथ, तुरंत ही जुझारू एकता को कायम करने के लिए कदम उठाती हैं”.
ट्रोट्स्की द्वारा किसानो को अनदेखा किये जाने पर चिंता जाहिर करते हुए और पुराने बोल्शेविक नारे “मजदूर- किसानो के जनवादी अधिनायकत्व” को वैध करार देते हुए, श्यामजी यह सोचना ही भूल जाते हैं, कि किसान इस अधिनायकत्व में किस पार्टी के जरिये हिस्सा लेंगे. साम्राज्यवाद के तहत किसान वर्ग की कोई पार्टी, यानि ऐसी पार्टी जो सर्वहारा और पूंजीपति वर्ग, दोनों से स्वतंत्र हो, असंभव है. यदि किसान सर्वहारा पार्टी के जरिये हिस्सा लेंगे तो ‘जनवादी अधिनायकत्व’ फिर से सर्वहारा के एकल अधिनायकत्व में बदल जायेगा, यदि वे पूंजीपति वर्ग की किसी पार्टी के जरिये हिस्सा लेंगे तो यह सत्ता पूंजीपति वर्ग की सत्ता हो जाएगी. श्यामजी रूसी क्रांति के सारे सबक भूलकर बस एक धार्मिक भक्त की तरह, मार्क्स-लेनिन के गीता-पाठ में जुटे हैं,बिना इस बात की परवाह किये कि पिछले एक शताब्दी के इतिहास ने इसे कैसे देखा परखा है. . कहने की जरूरत नहीं कि ट्रोट्स्की किसी भी तरह मजदूर-किसानो के संश्रय को अनदेखा नहीं कर रहा था, उलटे सतत क्रांति की ट्रोट्स्की की पूरी थीसिस, रूस में मजदूर-किसानो के इसी संश्रय पर आधारित है. श्यामजी का दूसरा आरोप कि ट्रोट्स्की ‘समाजवादी क्रांति की मंजिल’ का नारा दे रहा था, कोरी गप्प और पूर्वाग्रह है. यहाँ श्यामजी ने यह नहीं बताया कि ट्रोट्स्की का समाजवादी क्रांति का वह नारा था क्या. यह नारा वही था जो फरवरी १९१७ में लेनिन दे रहा था- “सारी सत्ता सोवियतों को दो”. ट्रोट्स्की यही कह रहा था, किसानो के संश्रय पर आधारित सर्वहारा की तानाशाही. मगर यह तो जनवादी नारा था. दरअसल सर्वहारा अधिनायकत्व को समाजवादी क्रांति से जोड़कर देखते हुए,स्तालिनवादी चश्मा पहने श्यामजी को सर्वहारा अधिनायकत्व का नारा तत्वतः समाजवादी नारा प्रतीत होता है. श्यामजी ने सर्वहारा क्रांति को मनमाने ढंग से जनवादी और समाजवादी दो मंजिलों में बांटकर, अपने मस्तिष्क के दो अलग-अलग हिस्सों में कैद कर दिया है.
दरअसल,बिना पढ़े-समझे ही श्यामजी ट्रोट्स्की पर पिल जाते हैं. आइये जरा सुनें श्यामजी की ट्रोट्स्की के बारे में समझ- “ट्रोट्स्की की दलील थी कि वर्तमान युग विश्व स्तर पर पूँजी के प्रभुत्व का युग है इसलिए निरंकुश राजतन्त्र के खिलाफ सीधा-सीधी सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व अथवा समाजवादी क्रांति का नारा देना होगा......वगैरह वगैरह”.‘सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व अथवा समाजवादी क्रांति का नारा देना होगा’. यहाँ‘अथवा’ लगाकर श्यामजी ने सर्वहारा के अधिनायकत्व और समाजवादी क्रांति दोनों को पर्यायवाची बना दिया है. दोनों के पर्यायवाची होने की समझ श्यामजी की है ट्रोट्स्की की नहीं. चूंकि ये श्यामजी हैं जो यह मानते हैं कि सर्वहारा की तानाशाही समाजवादी क्रांति में ही प्रकट होगी, जनवादी क्रांति में नहीं. श्यामजी ने ट्रोट्स्की के बारे में सुना है पढ़ा नहीं. ट्रोट्स्की ने ऐसा कभी नहीं कहा कि “सीधे समाजवादी क्रांति का नारा देना होगा”. ट्रोट्स्की की आलोचना के लिए उतावले होने से पहले श्यामजी को ट्रोट्स्की को पढ़ समझ लेने की जेहमत जरूर उठानी चाहिए. ट्रोट्स्की और लेनिन के बीच इस बात पर पूर्ण सहमति थी कि रूस में आसन्न क्रांति बुर्जुआ जनवादी क्रांति है और इसमें मजदूर किसानो का सहबंध सत्तासीन होगा. इस सहबंध में मजदूर-किसानो का परस्पर सम्बन्ध क्या होगा, इस प्रश्न को जहाँ लेनिन का फार्मूला खुला छोड़ देता है, वहीं ट्रोट्स्की इसका उत्तर देता है. ट्रोट्स्की के अनुसार“मजदूर किसानो के जनवादी अधिनायकत्व” का अर्थ होगा- ‘किसानो द्वारा समर्थित,मजदूरों का अधिनायकत्व’. फरवरी क्रांति ने इस राजनीतिक पहेली को पूरी तरह सुलझा दिया. फरवरी क्रांति ने दिखाया कि या तो सत्ता पर सर्वहारा का अधिनायकत्व होगा,अन्यथा यह पूंजीपतियों के अधिनायकत्व में चली जाएगी. फरवरी क्रांति के इसी सबक को लेनिन ने अपनी अप्रैल थीसिस में कलमबंद किया और अक्टूबर क्रांति के लिए सर्वहारा अधिनायकत्व का प्रस्ताव रखा, जिसका बोल्शेविक और मेन्शेविक नेताओं ने तब तक विरोध किया, जब तक नीचे से क्रांतिकारी सर्वहारा के दबाव ने उन्हें बाध्य नहीं कर दिया.
जनवादी क्रांति, कोई अलग क्रांति या उसकी ‘स्वतंत्र’ मंजिल या चरण नहीं है. पिछड़े देशों में वह सर्वहारा क्रांति का ही एक रंग है, जिसके शुरू होने और आगे बढ़ने की पूर्व-शर्त है सर्वहारा की तानाशाही. शेष स्तालिंनवादियों-माओवादियों की तरह ही श्यामजी का भी यह मानना एकदम गलत है कि सर्वहारा की तानाशाही जनवादी मंजिल के अंत में और समाजवादी मंजिल के आरंभ में प्रकट होगी. सर्वहारा की तानाशाही क्रांति के शुरू होने की पूर्वशर्त है और वह इसके आगाज़ पर ही प्रकट होगी. सर्वहारा क्रांति को–जनवादी और समाजवादी- मंजिलों में बांटकर देखना और क्रान्ति के जनवादी और समाजवादी कार्यभारों के बीच लक्ष्मण-रेखा खींचना, पूरी तरह गैर-मार्क्सवादी अवैज्ञानिक और अनैतिहासिक है.
स्टालिन-वादियों और माओवादियों की समझ के विपरीत, फरवरी और अक्टूबर, क्रांति की दो अलग मंजिलें–जनवादी और समाजवादी- नहीं है, बल्कि वह एक ही सतत सर्वहारा क्रांति के आनुषंगिक(एपिसोडिक) हिस्से है जो सर्वहारा के एकल वर्ग अधिनायकत्व से उस सतत क्रांति के एक सूत्र में बंधे हैं, जो फरवरी में मेन्शेविक नेताओं की गद्दारी और बोल्शेविक नेताओं की नासमझी से, सत्ता पूंजीपति वर्ग के हाथ में चली जाने से रुक गई थी और अक्टूबर में उस सत्ता के उलट दिए जाने के साथ फिर से शुरू हो गई. अक्टूबर क्रांति ने ही जनवादी कार्यभारों को पूरा करते हुए पहले छह सालों में समाजवादी कार्यभारों की ओर शानदार कदम बढ़ाये. मगर अकेली पड़ जाने, और स्टालिनवादी ब्यूरोक्रेसी तथा दुनिया की बुर्जुआजी के बीच सांठ-गांठ के चलते, वह अपने कार्यभार अधूरे छोड़कर इतिहास में विलीन हो गई.
क्रांति के इस निरंतर, अटूट और सतत प्रवाह और जनवादी, समाजवादी चरणों से गुज़रते हुए उसके विकास को समझने के लिए उसे मानव जीवन के विकास के समकक्ष रखकर समझा जा सकता है.जिस तरह मानव जीवन बचपन, जवानी और बुढ़ापे के चरणों से गुजरते हुए, जीवन की डोर से बंधा रहता है, उसी तरह क्रांति कितने ही संयोगिक चरणों से गुज़रते हुए, शुरू से अंत तक, ‘सर्वहारा अधिनायकत्व’ की एक ही डोर से बंधी रहती है. जिस तरह जवानी को बचपन और बुढ़ापे से अलग करने वाली कोई अलंघ्य दीवार नहीं है, उसी तरह जनवादी और समाजवादी कार्यभारों को बांटने वाली कोई दीवार नहीं है. क्रांति, दो नहीं, बल्कि दर्जनों प्रासंगिक चरणों से लगातार गुज़रती है, जिन्हें सर्वहारा का अधिनायकत्व एक डोर में पिरोये रखता है.
लेनिन की अप्रैल थीसिस से उद्धरण लेते हुए कि “जनवादी क्रांति और समाजवादी क्रांति के बीच कोई अलंघ्य दीवार नहीं है”, श्यामजी इस उद्धरण के मायने और सन्दर्भ दोनों को समझने की अपनी असमर्थता का प्रदर्शन करते हैं. यह उद्धरण स्पष्टतः उन बोल्शेविक नेताओं के विरुद्ध निर्देशित है जो क्रांति को जनवादी और समाजवादी, दो मंजिलों में बांटकर एक दूसरे से अलग करना चाहते थे और इसलिए “जनवादी अधिनायकत्व” के कालातीत सिद्धांत के साथ चिपके हुए थे. लेनिन का यह कथन उसी अवधारणा को दूसरे शब्दों में सामने रखता है जिसे ट्रोट्स्की सतत क्रान्ति (परमानेंट रिवोल्यूशन) कहता है. इस उद्धरण का जाप करते हुए श्यामजी लगातार इसके खिलाफ सोचते-बोलते जा रहे हैं. वे ट्रोट्स्की को ठीक इसी बात के लिए कोसने वालों के साथ हैं कि ट्रोट्स्की इस अलंघ्य दीवार को लांघने की हिमाकत कैसे कर सकता है.
रूसी क्रांति ने दिखा दिया कि अंततः, क्रांति पर सर्वहारा का प्रभुत्व और सत्ता पर उसका अधिनायकत्व, इस बात से पूरी तरह निरपेक्ष रहता है कि क्रांति का चरित्र क्या है,उसके कार्यभार क्या हैं या उसकी संचालक शक्तियां कौन सी हैं. हर हालत में,सर्वहारा अधिनायकत्व, क्रांति के जन्म और विकास की अनिवार्य पूर्वशर्त बना रहता है, जबकि क्रांति के विकास और ह्रास के दौरान अन्य सामाजिक वर्ग इसके अधिनायकत्व से जुड़ते टूटते रहते है, मगर सर्वहारा अधिनायकत्व कायम रहता है. सर्वहारा अधिनायकत्व के अतिरिक्त, और कोई भी सत्ता, उसे आप चाहे फिर जो भी संज्ञा दें-लोक-जनवाद, नव-जनवाद या कुछ और, अंततः क्रांति-विरोधी साबित होती है.
सर्वहारा का अधिनायकत्व, क्रांति की तमाम मंजिलों और स्थितियों से निरपेक्ष, ठीक क्रांति के आरंभ में प्रकट होगा. किसानो, गरीबों और अर्ध-सर्वहारा के विभिन्न हिस्से उससे विभिन्न समय, स्थान और स्थितियों में जुड़ते टूटते रहेंगे. किन्तु सर्वहारा अधिनायकत्व सतत क्रांति के प्रकट होने और आगे बढ़ते रहने की अनिवार्य पूर्वशर्त है.
हमने बार-बार कहा है कि समूची दुनिया सर्वहारा क्रांतियों और सर्वहारा अधिनायकत्व के लिए परिपक्व है. अलग अलग देशों में क्रांति के कार्यभार, स्वरुप और गति अलग-अलग होगी मगर इनका आगाज़ और विकास सर्वहारा के अधिनायकत्व के बिना नहीं हो सकता. मसलन भारत में सर्वहारा अधिनायकत्व मजदूर-किसानो के संश्रय पर आधारित होगा और इसलिए जनवादी स्वरूप का होगा, जबकि अमेरिका में ऐसे किसी संश्रय की आवश्यकता नहीं होगी इसलिए सर्वहारा का वही अधिनायकत्व समाजवादी स्वरूप का होगा. भारत में इस अधिनायकत्व को बिलकुल शुरू में ही जनवादी कार्यभार पूरे करने होंगे, जिसके लिए उसे किसानो के विभिन्न संस्तरों के साथ समन्वय बनाना होगा अतः उस हद तक क्रांति का स्वरूप और इस अर्थ में सर्वहारा अधिनायकत्व का रंग भी कुछ समय तक, जनवादी बना रहेगा, जबकि अमेरिका में सर्वहारा अधिनायकत्व शुरू से ही समाजवादी अधिनायकत्व होगा. मगर दोनों देशों में होगा यह सर्वहारा अधिनायकत्व ही, जिसका सिर्फ रंगरूप ही एक दूसरे से भिन्न होगा. सर्वहारा का अधिनायकत्व और इसलिए क्रांति का स्वरुप भी, जनवादी है या समाजवादी, यह इसी बात पर निर्भर करेगा कि यह अधिनायकत्व कौन से वर्गों पर टिका है और क्रांति के सामने कार्यभार क्या हैं.
ऊंचे सुर में प्रलाप करते हुए श्यामजी लेनिन को बारम्बार उद्धृत करते हैं कि “क्रांति का प्रश्न प्रथमतः सत्ता का प्रश्न है”, बिना यह समझे कि इसका अर्थ और प्रसंग क्या है. लेनिन के इस सूत्र का सीधा अर्थ यह है कि बिना राजसत्ता को हाथ में लिए सर्वहारा क्रांति की शुरुआत ही नहीं कर सकता, इसलिए सर्वहारा सत्ता की स्थापना क्रांति की अनिवार्य पूर्वशर्त है. मगर श्यामजी के लिए तो यह त्रोत्स्कीवाद है.श्यामजी ने स्टालिन से जो मार्क्सवाद पढ़ा है, उसके हिसाब से तो सर्वहारा, क्रांति के आरंभ में सत्ता में आ ही नहीं सकता, उसे तो अंत में सत्ता लेनी है. इसलिए लेनिन के इस कथन से वह बेहूदा निष्कर्ष निकालते हैं, कि ‘क्रांति उसी वर्ग के खिलाफ होती है जो सत्ता में होता है’, ‘कौन सा वर्ग सत्ता में है, उसी से क्रांति का चरित्र निरूपण होता है’, और ‘सत्ता बदलते ही क्रांति का प्रश्न हल हो जाता है’. इसे और स्पष्ट करते हुए, वह फरवरी क्रांति का उदाहरण देकर बताते हैं कि फरवरी में पूंजीपति वर्ग के सत्ता में आ जाने के बाद लेनिन ने समाजवादी क्रांति का रणनीतिक नारा दिया. अपने इस सूत्र का सामान्यीकरण करते हुए श्यामजी फरमाते हैं कि समाजवादी क्रांति का नारा देने के लिए पूंजीपति वर्ग का सत्ता में होना जरूरी है. और ऐसा कहते हुए श्यामजी अनजाने में ही पूंजीपति वर्ग की सत्ता को समाजवादी क्रांति की पूर्वशर्त बना देते हैं, एक ऐसी ऐतिहासिक आवश्यकता और औपचारिकता बना देते हैं,जिसका पूरा होना समाजवादी क्रांति की तरफ बढ़ने के लिए आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है.इस तरह वह न सिर्फ रूस में फरवरी की पूंजीवादी अस्थायी सरकार को वैधता देते हैं,बल्कि दुनिया भर में पूंजीवादी सरकारों की स्थापना को, क्रांति की नाकामी के बजाय,इतिहास की अनिवार्य मांग बना देते हैं. श्यामजी के इस सतही विश्लेषण के विपरीत,क्रांति का चरित्र निरूपण प्रथमतः क्रांति में हिस्सा लेने वाले सामाजिक वर्गों और उनके आपसी संलयन से और दूसरे क्रांति के सामने प्रस्तुत कार्यभारों से होता है.
श्यामजी की कपोल-कल्पनाओ के विपरीत लेनिन ने अक्टूबर क्रांति तक भी समजवादी क्रांति का ऐसा कोई नारा दिया ही नहीं. अनुमानतः, श्यामजी “सारी सत्ता सोवियतों को” के लेनिन के प्रस्ताव को समाजवादी क्रांति का नारा बता रहे हैं. न तो यह नारा और न सोवियतें ही समाजवादी हैं. सोवियतें मजदूर किसान संश्रय को बिम्बित करती हैं, और इसलिए यह नारा भी.
उनकी यह समझ कि समाजवादी क्रांति का नारा सिर्फ पूंजीपति वर्ग की सरकार के विरुद्ध ही दिया जा सकता है, भी एकदम गलत है. लेनिन और बोल्शेविकों ने समाजवादी क्रांति का नारा १९१८ के अंत में दिया, १९१७ में नहीं और तब सर्वहारा का अधिनायकत्व था, न कि पूंजीपति वर्ग का.
श्यामजी की यह धारणा भी उतनी ही गलत है कि राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग की सत्ता के विरुद्ध क्रांति का चरित्र अनिवार्य रूप से समाजवादी ही होगा, जनवादी नहीं. हिटलर,मुसोलिनी, तोज़ो और फ़्रेंको के तहत जर्मनी, इटली, जापान और स्पेन में, ये सभी सत्ताएं राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग की सत्ताएं थीं, तथापि इन सत्ताओं के विरुद्ध क्रांति का स्वरुप जनवादी ही था, चूंकि इनकी तख्ता-उल्टाई में सर्वहारा और अर्ध-सर्वहारा वर्गों के अलावा आबादी के दूसरे हिस्से भी रूचि रखते थे. इसलिए, क्रांति का चरित्र, जनवादी या समाजवादी, इस बात से तय नहीं होता, जैसा कि श्यामजी कहते हैं, कि सत्ता में कौन सा वर्ग है, बल्कि ठीक इस बात से तय होता है, कि किसी निश्चित दौर में क्रांति की वास्तविक संचालक शक्तियां कौन सी हैं. इसी से क्रांति के कार्यभार भी निर्धारित होते हैं. क्रांति जब केवल सर्वहारा और अर्ध-सर्वहारा वर्गों पर आधारित होती है तब उसका रंग समाजवादी हो जाता है, जब तक आबादी के दूसरे वर्ग उसमें शामिल होते हैं, उसका रंग जनवादी रहता है. अक्टूबर क्रांति इसलिए १९१८ के मध्य तक जनवादी क्रांति ही बनी रही चूंकि उसे समूचे किसान वर्ग का समर्थन हासिल रहा. मगर जैसे ही कुलक अक्टूबर क्रांति के खिलाफ खड़े हुए, या कहें कि क्रांति उनके खिलाफ मुड़ी, वह समाजवादी क्रांति बन गई. वही अक्टूबर क्रांति, वही सर्वहारा अधिनायकत्व, खुलती है जनवादी कार्यभारों के साथ, और विकसित होती है समाजवादी कार्यभारों में.
इसलिए वास्तव में आसन्न क्रांति के चरित्र के बारे में एक स्थूल अनुमान तो लगाया जा सकता है, मगर उसके सटीक चरित्र के बारे में कोई स्थिर अग्रिम भविष्यवाणी नहीं की जा सकती, चूंकि उसमें एक निश्चित समय पर कौन से वर्ग वास्तव में हिस्सा लेंगे और उनके बीच वास्तविक संलयन क्या होगा, यह निश्चय के साथ नहीं कहा जा सकता.
दूसरे,सत्ता का प्रश्न क्रांति का मुख्य प्रश्न सिर्फ इसलिए है कि पुरानी राजसत्ता के चलते क्रान्तिकारी सामाजिक परिवर्तन नहीं किये जा सकते, इस बाधा को हटा देना और इसकी जगह क्रांति को प्रश्रय देने वाली नई राजसत्ता की स्थापना अनिवार्य है. मगर श्यामजी के विचार के विपरीत, यह सत्ता-परिवर्तन, क्रांति के प्रश्न को, उसके कार्यभारों को हल नहीं करता, बल्कि पहली बार उन्हें संजीदगी के साथ सामने लाता है,जिन्हें अभी क्रांति को हल करना है. श्यामजी का यह कहना कि लेनिन ने जनवादी क्रांति के काम पूरे हुए बिना ही समाजवादी क्रांति का नारा दे दिया था, केवल उनके राजनीतिक फूहड़पन की मिसाल है. लेनिन ने समाजवादी क्रांति का कोई नारा नहीं दिया था. अक्टूबर क्रांति, समाजवादी क्रांति में १९१८ के अंत में जाकर विकसित हुई जब अमीर किसान इसके खिलाफ हो गए, उससे पहले वह मजदूर-किसानो के सहबंध पर आश्रित जनवादी क्रांति ही थी, जिसकी बागडोर, श्यामजी की इच्छा के विरुद्ध, सर्वहारा अधिनायकत्व के हाथ में थी, जिसकी प्रतिनिधि थी बोल्शेविक पार्टी.
श्यामजी,सर्वहारा अधिनायकत्व के नारे को, क्रांति की समाजवादी मंजिल का नारा समझते हैं, और वास्तव में दोनों को एक-दूसरे में गड्ड-मड्ड कर देते हैं. उनके हिसाब से सर्वहारा,क्रांति की प्रथम जनवादी मंजिल में अधिनायकत्व स्थापित नहीं कर सकता. व्यवहारतः,उनके हिसाब से, क्रांति की पहली मंजिल में पूंजीपति वर्ग ही सत्ता में आ सकता है,जिसके बाद ही सर्वहारा समाजवादी क्रांति का नारा दे सकता है और अपना अधिनायकत्व स्थापित कर सकता है. यहाँ श्यामजी एक बार फिर चक्कर खा जाते हैं. यदि क्रांति की पहली मंजिल में सर्वहारा इसलिए एकल अधिनायकत्व स्थापित नहीं कर सकता कि लेनिन के फ़ॉर्मूले के अनुसार किसान वर्ग इस अधिनायकत्व में उसका हिस्सेदार है, तो लेनिन के ही फ़ॉर्मूले के अनुसार समाजवादी क्रांति में गरीब किसान और अर्ध-सर्वहारा भी उसके हिस्सेदार हैं, फिर समाजवादी मंजिल में भी वह इन वर्गों पर कैसे अपना अधिनायकत्व लाद सकता है? तो सर्वहारा अधिनायकत्व कहाँ और कैसे प्रकट होगा?
सत्ता चाहे जार के हाथ थी या पूंजीपतियों के, सर्वहारा का रणनीतिक नारा एक ही हो सकता था- “सारी सत्ता सोवियतों को”. इसके विपरीत, जार के खिलाफ बुर्जुआ का रणनीतिक नारा सार्विक मताधिकार और संविधान सभा ही हो सकता था. इसलिए रणनीतिक नारे इस बात से निर्देशित नहीं होते, जैसा श्याम सुन्दर कहते हैं, कि सत्ता किस वर्ग के हाथ में है, बल्कि इस बात से निर्देशित होते हैं कि कौन सा वर्ग सत्ता पर दावेदारी प्रस्तुत कर रहा है.
अपने लेख में श्यामजी यह तो बताते हैं कि पूंजीपति वर्ग के सत्ता में आ जाने के बाद सर्वहारा उसे समाजवादी क्रांति के जरिये उलटेगा, लेकिन यह नहीं मानते कि जनवादी क्रांति के जरिये सर्वहारा खुद सत्ता में आ सकता है और अपना एकल अधिनायकत्व स्थापित कर सकता है. यदि सर्वहारा नहीं तो फिर कौन? पूंजीपति? उस पर श्यामजी को कोई आपत्ति नहीं है! कोई भी सत्ता में आये, मगर सर्वहारा नहीं, वरना यह तो ट्रोट्स्की की सतत क्रांति हो जाएगी! श्यामजी के इस स्तालिनवादी सूत्र के अनुसार सर्वहारा सत्ता में तभी आ सकता है जब एक बार पूंजीपति वर्ग उस सत्ता को छूकर पवित्र कर दे. कुछ भी हो यह औपचारिकता पूरी होनी ही चाहिए! चूंकि इस फ़ॉर्मूले पर लेनिन का नाम लिखा है.
श्यामजी,लेनिन के जिस फ़ॉर्मूले को बार-बार दोहरा रहे हैं, पहले उस पर एक नज़र डाल लें: रूस में १९०५ की क्रांति की पूर्वसंध्या पर, अभी राजनीतिक क्रांति को सुदूर भविष्य में देखते हुए, अपनी रचना, “जनवादी क्रांति में सामाजिक जनवाद की दो कार्यनीतियाँ” में लेनिन, क्रांति के चरित्र निरूपण के सम्बन्ध में यह प्रस्थापना रखते है:
“......मार्क्सवादी, रूसी क्रान्ति के बुर्जुआ चरित्र पर पूर्णतया निश्चित हैं. इसका अर्थ क्या है? इसका अर्थ है कि राजनीतिक व्यवस्था में जनवादी सुधार तथा सामाजिक और आर्थिक सुधार, जो रूस के लिए आवश्यक हो चुके हैं. उनका अर्थ अपने आप में पूंजीवाद को, पूंजीपतियों के शासन को, समाप्त कर देना नहीं है; इसके विपरीत, वे पहली बार एशियाई किस्म के पूंजीवाद की जगह, विस्तृत और खुले यूरोपीय ढंग के पूंजीवाद के लिए रास्ता साफ़ कर देंगे, पहली बार बुर्जुआ के लिए एक वर्ग की हैसियत से शासन करना संभव बनायेंगे......”.
“......बुर्जुआ क्रांति, संक्षेप में ऐसी क्रांति है जो पूरे आवेग के साथ भूतकाल के अवशेषों, भूदास प्रथा के अवशेषों (जिसमें न सिर्फ निरंकुशता बल्कि राजशाही भी शामिल है) को नष्ट कर देती है, और पूंजीवाद के सबसे व्यापकतम, सबसे स्वतंत्र, और तीव्रतम विकास को पूर्णतया सुनिश्चित बनाती है.....”
“मजदूर किसानो का क्रान्तिकारी-जनवादी अधिनायकत्व ही जारशाही पर क्रांति की निर्णायक विजय है”.
उद्धृत वाक्यांश से लेनिन का स्पष्ट मत है कि रूस में आसन्न क्रांति बुर्जुआ क्रान्ति है जो पूंजीवाद का सफाया नहीं करेगी बल्कि पूंजीवाद को और विस्तृत और गहन बनाएगी तथा पूंजीपति वर्ग के शासन को सुदृढ़ बनाएगी.
इसी पुस्तक में लेनिन यह प्रस्थापना भी देते हैं की चूंकि रूसी पूंजीपति वर्ग क्रांति के सम्बन्ध में ढुलमुल रवैया अपनाएगा, और बुर्जुआ क्रांति का नेतृत्व करने में अक्षम रहेगा, इसलिए यह कार्यभार अनिवार्य तौर पर रूसी सर्वहारा के कन्धों पर आ जाता है, जिसे सर्वहारा, किसान वर्ग के साथ “क्रान्तिकारी-जनवादी अधिनायकत्व”बनाकर पूरा करेगा. इसका अर्थ यह था: क्रान्तिकारी रूस एक निम्न-बुर्जुआ गणराज्य होगा, उस पर मजदूर किसानो का जनवादी अधिनायकत्व होगा, यह अधिनायकत्व पूंजीवाद और पूंजीपतियों की सत्ता को नष्ट नहीं करेगा बल्कि उसे विस्तृत और गहन बनाएगा.
अभी जून १९०५ में भी क्रांति को एक अनिश्चित सुदूर सम्भावना मानते हुए, लेनिन इस रचना में बहुत से विकल्पों और संभावनाओं पर विचार कर रहे हैं. जून १९०५, तक रूसी क्रांतिकारियों ने न तो वास्तविक राजनीतिक क्रांति ही देखी है, न क्रान्तिकारी जनता. अलग अलग मार्क्सवादी राजनीतिक धाराएँ अपने अनुमानित आंकलन, जो मुख्यतया बीती सदी की यूरोपीय बुर्जुआ-जनवादी क्रांतियों के आधार पर निकाले गए हैं, प्रस्तुत कर रही हैं. प्लेखानोव, लेनिन, ट्रोट्स्की सहित सभी मार्क्सवादी नेता १९०५ की क्रान्ति की पूर्वसंध्या पर, मगर १९१७ की क्रांति से अभी १२ वर्ष दूर, क्रांति के चरित्र, उसकी शक्तियों और कार्यभारों पर, मार्क्सवाद की अपनी-अपनी समझ के अनुसार अनुमानित खाका तैयार कर रहे हैं.
प्लेखानोव के नेतृत्व में मेन्शेविक, क्रांति के बुर्जुआ चरित्र को मानते हुए, प्रस्तावित करते हैं कि ठीक बीती सदी की यूरोपीय क्रांतियों की तर्ज़ पर, क्रान्तिकारी सत्ता का नेतृत्व उदार पूंजीपति वर्ग करेगा और सर्वहारा इस क्रांति में गौण भूमिका अदा करेगा.
इस तरह,रूसी क्रांति में पूंजीपति वर्ग की भूमिका को लेकर, लेनिन और प्लेखानोव के बीच मतभेद सामने आते हैं.
मेन्शेविक और बोल्शेविक, दोनों इस पर सहमत हैं कि बुर्जुआ क्रांति संपन्न होने के बाद,पूंजीवाद का विकास ही, समाजवादी क्रांति के लिए आवश्यक परिस्थितियां तैयार करेगा.
लीओन ट्रोट्स्की भी क्रांति के बुर्जुआ चरित्र को मानते हुए, यह प्रस्तावित करता है कि चूंकि रूस का भावी विकास पूंजीवाद के आधार पर संभव ही नहीं है, इसलिए रूसी क्रांति में विप्लवी किसान वर्ग के साथ क्रान्तिकारी सहबंध के जरिये सर्वहारा, रूसी क्रांति पर अपना नेतृत्व स्थापित कर लेगा और जारशाही पर जनवादी क्रांति की विजय के बाद उस नेतृत्व को अपने वर्ग अधिनायकत्व में बदल देगा, ऐसे जनवादी अधिनायकत्व में, जो किसानो के साथ सहबंध के चलते, क्रांति के जनवादी कार्यभारों को तेज़ी से पूरा करते करते ही, समाजवादी कार्यभारों को हाथ में ले लेगा. इस तरह ट्रोट्स्की ने,प्लेखानोव और लेनिन की इस समझ से अपने को १९०५ में ही अलग कर लिया था, कि क्रान्तिकारी जनवाद और जनवादी क्रांति, समाजवाद और समाजवादी क्रांति से अलग कोई स्वतंत्र चरण या मंजिल है. लीओन ट्रोट्स्की ने दिखाया कि किस तरह विश्व पूंजीवाद में देर से प्रवेश करने वाले पिछड़े हुए देशों में राष्ट्रीय आधार पर स्वतंत्र पूंजीवादी विकास असंभव है. ट्रोट्स्की ने दिखाया कि कैसे मजदूर-किसान सत्ता का एकमात्र मूर्त रूप सर्वहारा का एकल अधिनायकत्व ही हो सकता है, और क्यों किसान वर्ग इस अधिनायकत्व में शामिल नहीं हो सकता. अधिनायकत्व में शामिल होने के लिए किसान वर्ग की अपनी ऐसी राजनितिक पार्टी का होना जरूरी है जो न सिर्फ किसानो का एक वर्ग के तौर पर प्रतिनिधित्व करती हो बल्कि एक तरफ सर्वहारा और दूसरी तरफ पूंजीपति वर्ग से भी स्वतंत्र हो. ट्रोट्स्की ने कहा कि किसानो के सामाजिक संस्तरों में अगणित भेदों और बिखरावों के रहते ऐसी किसान पार्टी संभव ही नहीं है. किसान या तो पूंजीपति वर्ग या फिर सर्वहारा की पार्टी का समर्थन करेंगे. ट्रोट्स्की के अनुसार,किसानो के समर्थन पर आधारित सर्वहारा का नेतृत्व ही जनवादी नेतृत्व है और किसानो के साथ सहबंध पर आधारित अधिनायकत्व ही जनवादी अधिनायकत्व है.
१९०५ की क्रांति असफल रही और इसलिए मार्क्सवादियों की प्रस्थापनाओं को जांचने के लिए कसौटी नहीं बन सकी.
१९१७ में, फरवरी क्रांति के आरंभ में ही, सशस्त्र मजदूर किसानो ने सीधी कार्रवाई के जरिये जारशाही का तख्ता उलट दिया और पहले चार दिनों में ही एक ऐसे स्वतंत्र गणतंत्र की स्थापना कर दी, जिसकी दुनिया में दूसरी मिसाल मौजूद नहीं थी. सशस्त्र मजदूर-सैनिकों की सोवियतें इस क्रांति का नेतृत्व कर रही थीं. सोवियतें मुख्यतः मेन्शेविक, बोल्शेविक और समाजवादी क्रांतिकारियों के हाथ में थीं. लेनिन और ट्रोट्स्की को छोड़कर, जो विदेश में थे, तमाम मेन्शेविक और बोल्शेविक नेता, जो खुद को सर्वहारा पार्टी मानते थे, इस बात पर एकमत थे कि रूस में बुर्जुआ जनवादी क्रांति हो रही है, इसलिए सर्वहारा को और सर्वहारा पार्टियों को, क्रांति और क्रांतिकारी सत्ता पर एकल कब्जे के लिए नहीं लड़ना है, कि रूस में अभी पूंजीवादी गणराज्य कायम किया जाना है. उधर पूंजीवादी ड्यूमा के प्रतिनिधियों ने मिलकर मेन्शेविक और समाजवादी क्रांतिकारी पार्टियों के मेल से, सोवियतों के समानांतर,ड्यूमा की कार्यकारी समिति और फिर अस्थायी सरकार का गठन कर लिया था. ढुलमुल बोल्शेविक नेता, ‘जनवादी अधिनायकत्व’ और ‘जनवादी क्रांति’ की पुरानी लकीर को पीटते, अस्थायी सरकार और उसके घटकों- एक तरफ मेंशेविकों तो दूसरी तरफ समाजवादी क्रांतिकारियों-के खिलाफ संघर्ष करने के बजाय उनके साथ चिपके थे और अस्थायी सरकार का समर्थन कर रहे थे, यहाँ तक कि उसमें शामिल होने की सम्भावना पर भी विचार कर रहे थे.बोल्शेविक नेता, अस्थायी सरकार के विरोध या सत्ता पर कब्जे के तमाम प्रस्तावों को त्रोत्स्कीवादी कहते हुए ख़ारिज कर रहे थे और मेंशेविकों के साथ पार्टी विलय के प्रस्ताव पर चर्चा कर रहे थे. ऐसा करते हुए, बोल्शेविक नेता ईमानदारी से उस कालातीत पार्टी कार्यक्रम का अनुसरण कर रहे थे जिसके अनुसार अभी सर्वहारा पार्टियों को बुर्जुआ गणतंत्र के लिए, पूंजीवाद को विस्तृत और गहन बनाने के लिए और बुर्जुआ जनवाद को सुदृढ़ करने के प्रयास करने थे, न कि अपने एकल वर्ग अधिनायकत्व के लिए पूंजीवाद के विरुद्ध संघर्ष.
“जनवादी क्रांति” और “जनवादी अधिनायकत्व” की इस थ्यूरी के चलते, सोवियतों ने स्वेच्छा से सत्ता, अस्थायी पूंजीवादी सरकार के हाथ सौंप दी और उसका समर्थन करने लगीं. लेनिन के पत्र, जो इस नीति के विरुद्ध थे, बोल्शेविक नेताओं ने उन्हें प्रकाशित करने से मना कर दिया. २ अप्रैल की रात को रूस लौटे लेनिन ने मेन्शेविक और बोल्शेविक नेताओं की कड़ी आलोचना की, जिस पर इन नेताओं ने लेनिन पर त्रोत्स्कीवादी हो जाने का आरोप लगाते हुए, यह कहते हुए कि लेनिन क्रांति के “जनवादी चरण” को लांघ जाना चाहते हैं,उन्हें पूरी तरह अलग-थलग डाल दिया. ट्रोट्स्की १९०५ से वही कह रहा था जो लेनिन अप्रैल थीसिस में कह रहे थे, अतः लेनिन और ट्रोट्स्की, बोल्शेविक-मेन्शेविक नेताओं के खिलाफ एक हो गए. लेनिन को, अपनी इस नयी नीति के लिए, क्रान्तिकारी मजदूरों और पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच, जो पहले ही बोल्शेविक-मेन्शेविक नेताओं की इस कुत्सित पूंजीवाद समर्थक नीति के खिलाफ विद्रोह के लिए तैयार थे, भारी समर्थन हासिल हुआ.इस समर्थन और नीचे से दबाव के चलते बोल्शेविक नेता एक-एक करके लेनिन के पक्ष में आने लगे. अप्रैल थीसिस में दी गयी नयी दिशा की पार्टी में विजय हुई और बोल्शेविक पार्टी को अक्टूबर क्रांति की ओर, सर्वहारा अधिनायकत्व की ओर पुनर्निर्देशित करना संभव हुआ.
श्यामजी यह बात गोल कर देते हैं कि अक्टूबर १९१७ से अगस्त १९१८ तक चली क्रांति, जनवादी क्रांति थी और यह सर्वहारा के एकल अधिनायकत्व के तहत, सर्वहारा की पार्टी- बोल्शेविक पार्टी के अधिनायकत्व के तहत, चलायी जा रही थी. यह सत्ता मजदूर किसानो के संश्रय पर टिकी थी, और पूरे किसान वर्ग से समर्थित थी, मगर सर्वहारा, किसान वर्ग के साथ अधिनायकत्व साँझा नहीं कर रहा था. अक्टूबर क्रांति, पहले चरण में (अक्टूबर १९१७ से अगस्त १९१८) जनवादी क्रांति होते हुए भी किसानो द्वारा केवल समर्थित थी, और सर्वहारा के एकल वर्ग अधिनायकत्व में ही चल रही थी. इसके विपरीत, फरवरी में शुरू हुई क्रांति, पहले ४-५ दिनों को छोड़कर, आगे नहीं बढ़ सकी, चूंकि उस पर सर्वहारा की जगह पूंजीपति वर्ग की सत्ता कायम हो गई थी, जो मजदूर किसानो के संश्रय पर, उनकी सोवियतों पर टिकी थी. इसलिए ट्रोट्स्की की इस प्रस्थापना को कि ‘सर्वहारा अधिनायकत्व’ जनवादी क्रांति की पूर्वशर्त है, फरवरी क्रांति ने नकारात्मक रूप से और अक्टूबर क्रांति ने सकारात्मक रूप से, सही ठहरा दिया.
फरवरी और अक्टूबर, दोनों के वर्ग विन्यास और उनकी शक्तियों के संतुलन में क्या अंतर है?सिर्फ एक ही अंतर है- फरवरी में सोवियतों पर कब्ज़ा जमाये, रूसी पूंजीपति वर्ग के दलाल मेन्शेविक नेता, “जनवादी क्रांति” और “जनवादी अधिनायकत्व” के नाम पर सर्वहारा अधिनायकत्व का विरोध कर रहे हैं, और तमाम बड़े बोल्शेविक नेता, लेनिन और ट्रोट्स्की के खिलाफ मेंशेविकों का अनुसरण कर रहे हैं, जबकि अक्टूबर क्रांति में बोल्शेविक,लेनिन की अप्रैल थीसिस से पुनर्निर्देशित हैं और मेन्शेविक खुलकर अक्टूबर क्रान्ति के ख़िलाफ़ खड़े हैं. ये वही सोवियतें हैं, जिन्हें अक्टूबर में सत्ता लेनी है, और जिन्होंने अभी आठ महीने पहले ही फरवरी में सत्ता लेने से इंकार करते हुए, स्वेच्छा से सत्ता पूंजीपतियों की अस्थायी सरकार के हवाले कर दी थी.
फिर भी जब श्यामजी जैसे स्तालिनवादी जिद करते हैं कि सर्वहारा और उसकी बोल्शेविक पार्टी फरवरी में एकल वर्ग अधिनायकत्व के लिए नहीं लड़ सकते थे, सिर्फ अक्टूबर में ही लड़ सकते थे, तो उन पर हंसा ही जा सकता है.
रूस से भारत तक क्रांति के प्रश्न पर श्यामजी गलत निष्कर्षों पर पहुँचते हैं, चूंकि वह क्रांति के प्रश्न को राष्ट्र की परिसीमाओं के भीतर हल करना चाहते हैं! वे अक्टूबर क्रांति को इसी राष्ट्रवादी चश्मे से परखना शुरू करते हैं, बिना यह समझे कि सर्वहारा ने पिछड़े रूस में विकसित यूरोप से पहले सत्ता कैसे ले ली और एक किसानी देश में दुनिया में सबसे पहले सर्वहारा अधिनायकत्व कैसे स्थापित हो गया. यदि श्यामजी इसे समझने की कोशिश करते, तो क्रांति की पहेली आसानी से हल हो जाती.
पूंजीवाद का, पूंजीवादी उत्पादक शक्तियों का, निश्चित बिंदु तक विकास, सर्वहारा क्रांति की अनिवार्य शर्त है, चूंकि सर्वहारा का विकास पूंजीवाद के विकास के ही साथ बंधा है. फिर यूरोप के विकसित पूंजीवादी देशों- इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी के बजाय, सर्वहारा क्रांति अत्यंत पिछड़े रूस में कैसे संपन्न हो गयी? चूंकि पूंजीवाद के विकास का पैमाना राष्ट्र नहीं, समूची दुनिया है. रूस में सर्वहारा क्रांति इसलिए नहीं हुई कि रूस में पूंजीवाद अपने विकास की ऊंची मंजिल में दाखिल हो गया था और इसलिए सर्वहारा क्रांति के लिए परिपक्व हो गया था, बल्कि इसलिए हुई कि विश्व पूंजीवाद आम तौर से सर्वहारा क्रांति के लिए परिपक्व हो गया था, जिसकी सबसे कमज़ोर कड़ी रूस में मौजूद थी. क्रांति का गणित प्रथमतः अंतर्राष्ट्रीय है और उसे एक राष्ट्र की सीमाओं के अन्दर नहीं समझा जा सकता. इसलिए श्यामजी की समझ का प्रस्थान बिंदु ही गलत है. वे रूसी क्रांति को रूस की सीमाओं के भीतर हल करने की बचकाना कोशिश करते हैं और गलत निष्कर्ष पर पहुँच जाते हैं कि क्रान्ति के चरित्र का उत्पादन शक्तियों से कोई वास्ता नहीं है.
फरवरी क्रांति का मूल्यांकन करते हुए श्यामजी लिखते है कि “....और इस प्रकार मेंशेविकों ने सन १९०५ में जिस पूंजीवादी जनवादी क्रांति का नारा दिया था, वही फरवरी क्रांति के जरिये सफलीभूत हो गई.....”. श्यामजी की यह समझ पूरी तरह गलत है. मेंशेविकों ने १९०५ में कोई नारा नहीं दिया था. उनका आंकलन तो पुराने यूरोपीय क्रांतियों पर आधारित था, जिसके मुताबिक हाथ में सत्ता लेकर पूंजीपति वर्ग ने बुर्जुआ जनवादी क्रांति को आगे बढ़ाना था. फरवरी क्रांति ने यदि किसी की नाकामी का बिगुल बजाया तो वह था मेंशेविज्म और उसका बोगस सिद्धांत, जो इतिहास के कूड़ेदान के हवाले किया गया,जब तक स्टालिन एक दशक बाद ही उसे वापस निकालकर झाड़-पोंछ कर फिर से उपयोग में नहीं ले आया. ठीक फरवरी क्रांति ने ही मेंशेविकों की इस प्रस्थापना की कलई खोल दी कि सत्ता लेकर पूंजीपति वर्ग क्रांति को आगे बढ़ाएगा. श्यामजी की ही तरह मेन्शेविक भी पूंजीपति वर्ग के सत्तारोहण को अनिवार्य ऐतिहासिक मंजिल मानते थे. श्यामजी की ही तरह मेंशेविकों का भी यही मत था कि पूंजीपति वर्ग का सत्ता में आना समाजवादी क्रांति की पूर्वशर्त है. उधर फरवरी क्रांति ने ट्रोट्स्की की इस प्रस्थापना को सही साबित कर दिया कि सर्वहारा अधिनायकत्व क्रांति के विकास की पूर्वशर्त है और इसके बिना क्रांति आगे नहीं बढ़ सकती. लेनिन का फार्मूला- “मजदूर किसानो का जनवादी अधिनायकत्व” फरवरी में निरस्त नहीं किया गया, जैसा श्यामजी समझते हैं, बल्कि इतिहास ने उसे “किसानो द्वारा समर्थित मजदूर वर्ग के अधिनायकत्व” के रूप में संशोधित करके, अक्टूबर क्रांति में पुनर्प्रतिष्ठित किया. “जनवादी अधिनायकत्व” को स्तालिनवादी नजरिये से देखने पर ठीक वैसा ही प्रतीत होगा जैसा श्यामजी कह रहे हैं-मेन्शेविक नारा सफलीभूत हो गया और लेनिन-ट्रोट्स्की के सूत्र असफल हो गए. श्यामजी का यह दृष्टिकोण एकदम सतही है और ऐतिहासिक वास्तविकता से कोसों दूर.
श्यामजी की समझ के विपरीत, पूंजीपति वर्ग का सत्ता में आना जनवादी क्रांति नहीं, बल्कि प्रतिक्रांति है.
श्यामसुंदर के लेख अंतर्विरोधों से भरे हैं, और वे उन बातों का जो उन्होंने सुन-पढ़ ली हैं,बिना सोचे-समझे मंत्र-जाप किये जा रहे हैं. एक तरफ तो वह लेनिन की इस बात को, जो उन्होंने अप्रैल थीसिस में उन बोल्शेविक नेताओं के खिलाफ कही थी जो क्रांति को जनवादी और समाजवादी, दो अविभाज्य चरणों में बाँटकर देख रहे थे, बार-बार दोहराते हैं कि “जनवादी और समाजवादी क्रांति के बीच कोई अलंघ्य दीवार नहीं है”, और दूसरी ओर ट्रोट्स्की पर इस अलंघ्य दीवार को लाँघ जाने के स्तालिनवादी आरोपों को भी दुहराते जाते हैं.
श्यामसुंदर की यह स्तालिनवादी तोतारटंत, लेनिन की कृतियों के गीता-पाठ पर आधारित है, जो क्रांति के विकास को व्याख्यायित करने का स्वांग भरते हुए, खुद लेनिन के क्रांतिकारी विकास को भी अनदेखा कर देती है और लेनिन की १९०५ की प्रस्थापनाओं को १९१७ की प्रस्थापनाओं के साथ गड्ड-मड्ड करके एक धर्मोपदेश तैयार करती है, जिसका न सर है न पैर. सर्वहारा क्रांति के विज्ञानं को समझने के लिए उसे १९०५ नहीं बल्कि अक्टूबर की ऊँचाई से देखा जाना चाहिए, और ठीक वहां से लेनिन को समझा जाना चाहिए.
क्रान्ति के दो चरणों वाले मेन्शेविक फ़ॉर्मूले के उपासक श्यामजी का मानना है कि १९४७ में भारतीय बुर्जुआ के सत्ता सम्हालने के साथ, भारत में भी जनवादी क्रांति सम्पन्न हो गई और इसलिए समाजवादी क्रांति की मंजिल शुरू हो गई थी और १९४७ के बाद सीपीआई को समाजवादी क्रांति का नारा देना चाहिए था.
क्रांति एक अनवरत राजनीतिक प्रक्रिया है, जो एक नए क्रान्तिकारी वर्ग के सत्ता में आने के साथ शुरू होती है और अपने विकास की विभिन्न मंजिलें तय करती हुई आगे बढती है. मगर श्यामजी के लिए क्रांति एक प्रक्रिया नहीं, एक परिघटना है जो किसी वर्ग के सत्ता में आ जाने के साथ ही सम्पन्न हो जाती है. श्यामजी के अनुसार, फरवरी १९१७ में रूस में पूंजीपति वर्ग के सत्तासीन होने के साथ रूस में जनवादी क्रांति सम्पन्न हो गई और समजवादी क्रांति शुरू हो गई और १९४७ में भारत में श्यामजी की जनवादी क्रांति की इतिश्री हो गई और समाजवादी मंजिल शुरू हो गई. दोष श्यामजी का नहीं है, उन्होंने क्रांति का यह गजब विज्ञानं स्टालिन और माओ से जो सीखा है.
श्यामजी सारी राजनीति को राष्ट्रवादी नज़रिए से देखते हैं और तमाम सवालों को भारत की परिसीमाओं में हल करने की कोशिश करते हैं.
श्यामजी के दर्शन का सबसे मज़ेदार पक्ष है उनकी यह मान्यता कि जनवादी क्रांति की उनकी मंजिल, पूंजीपति वर्ग के सत्तारोहण -फरवरी १९१७ रूस में और अगस्त १९४७ भारत में-के साथ पूर्ण हो गई और इन दोनों देशों में क्रांतियाँ समाजवादी मंजिल में दाखिल हो गईं. पूंजीपति वर्ग का सत्तारोहण क्रान्ति के पराभव और प्रतिक्रांति की विजय का प्रतीक है, मगर श्यामजी को जिस किसी तरह समाजवादी मंजिल में घुसने की जल्दी है सो जनवादी क्रांति की इतिश्री करनी ही है, चाहे वह पूंजीपति वर्ग के सत्तारोहण के साथ ही क्यों न करनी पड़े.
भगत सिंह के नाम को अपनी क्षुद्र स्तालिनवादी राजनीति के सांचे में कच्चे माल के रूप में इस्तेमाल करने के लिए श्यामजी, सीपीआई के खिलाफ भगत सिंह के साथ खड़े होने का ढोंग करते हैं, जबकि असल में वह भगत सिंह के खिलाफ सीपीआई के स्तालिनवादी कार्यक्रम के साथ ही मजबूती से खड़े रहते हैं.
अंतर्राष्ट्रीय वेबसाइट marxist.com पर एक अप्रैल २००९ को अंग्रेजी में प्रकाशित एक लेख“Political Relevance of Bhagat Singh” (देखें: http://www.marxist.com/bhagat-singh.htm) में हमने रेखांकित किया था कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी जिस वक़्त भारत में ‘दो चरणों’ वाली क्रांति की पहली, जनवादी मंजिल की बात करते हुए सर्वहारा अधिनायकत्व को ख़ारिज कर रही थी, और जनवादी क्रांति के नाम पर ब्रिटिश और भारतीय पूंजीपतियों के साथ मिलीभगत कर रही थी, उस समय भगत सिंह, पूंजीवाद विरोधी सतत क्रांति की बात कर रहा था.
इस लेख की प्रस्थापनाओं को काट-छांटकर, श्यामसुन्दर ने २००६ में लिखी पुस्तक “भगत सिंह:लक्ष्य और विचारधारा” को २०१२ में संशोधित किया. इनके आधार पर भगत सिंह और कम्युनिस्ट पार्टी के संबंधों और विलग दृष्टिकोणों को रेखांकित करते हुए भी, उनकी आत्मा को जानबूझकर तोड़-मरोड़ दिया, चूंकि क्रांति का ‘मंजिलों वाला’ मेन्शेविक सिद्धांत, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी सीधे, श्याम सुन्दर के राजनीतिक गुरु,स्टालिन से ही आयात कर रही थी. श्याम सुन्दर ने यह भी गायब कर दिया कि स्टालिन के इस प्रस्ताव का लिऔन ट्रोट्स्की के नेतृत्व में जबरदस्त विरोध हो रहा था और भगत सिंह वही सोच रहा था जिसके लिए ट्रोट्स्की स्टालिन के विरुद्ध कोमिन्टर्न,सी.पी.एस.यू, और सोवियत संघ में अन्दर और बाहर संघर्ष कर रहा था. श्यामसुन्दर यह भी नहीं बताते कि भगत सिंह फांसी से पहले जेल में लेनिन के साथ ट्रोट्स्की की जीवनी भी पढ़ रहा था.
सीपीआई की आलोचना करते हुए श्यामजी इस बात पर आपत्ति करते हैं कि सीपीआई ने महात्मा गाँधी और सुभाष चन्द्र बोस में मतभेद होने पर सुभाष का समर्थन नहीं किया. अपनी इस आपत्ति का कोई तार्किक आधार वे प्रस्तुत नहीं करते. पूंजीवादी राष्ट्रवाद के इस प्रणेता का सीपीआई को समर्थन क्यों करना चाहिए था इसका भी कोई तर्क वह नहीं देते. अगली ही सांस में फिर सीपीआई पर हमला करते हैं कि उसने आंबेडकर के ‘जाति मिटाओ’ कार्यक्रम का समर्थन नहीं किया. इस धुन में श्यामजी यह भी भूल जाते हैं की जिस भगत सिंह के नाम पर वह दुकान खोले बैठे हैं, आंबेडकर, गाँधी के साथ वह दूसरा नेता था, जिसने दूसरी गोलमेज़ कांफ्रेंस में भगत सिंह की फांसी को माफ़ करने की मांग उठाने से इंकार कर दिया था. अम्बेडकर भारत में ब्रिटिश राज का समर्थन करता था और मुक्ति आन्दोलन का विरोध. बाद में नेहरु की सरकार में कानून मंत्री रहा. सीपीआई को लेकर श्यामजी की आलोचना सिर्फ इस मुद्दे पर केन्द्रित है कि सीपीआई राष्ट्रीय बुर्जुआ के उपरोक्त उग्रवादी या सुधारवादी हिस्सों के साथ क्यों नहीं चिपकी? श्यामजी सीपीआई की आलोचना करते हुए काफी सावधानी बरतते हैं. वे सीपीआई की नीतियों और कार्यक्रमों की आलोचना तो करते है, मगर यह नहीं बताते कि यह तमाम नीतियाँ और कार्यक्रम स्टालिन और उसके तहत कोमिन्टर्न से जारी किये जा रहे थे. यह नहीं कहते कि किस तरह सीपीआई स्टालिन की कठपुतली बनकर काम कर रही थी. तमाम प्रति-क्रान्तिकारी कार्रवाहियों के लिए उनके प्रणेता स्टालिन को दोष देने की जगह श्यामजी सारा दोष सीपीआई पर मढ़ देते हैं, फिर चाहे वह ब्रिटिश हुकूमत का समर्थन हो या नेहरु की सरकार का. श्यामजी खुद स्तालिनवादी हैं, खुलकर स्वीकार नहीं करते, और झूठमूठ ही अपने को लेनिनवादी कहते हैं.
श्याम सुन्दर यह तो मानते हैं कि सीपीआई के पास पहले तो कार्यक्रम नहीं था, और जो कार्यक्रम उसने अपनाया वो बोगस था, मगर यह नहीं बताते कि यह पूरा कार्यक्रम स्टालिन के दिशानिर्देशों के अलावा और कुछ नहीं था. वैसे भी, सीपीआई और स्टालिन के निर्देशों पर चलने वाली तीसरे इंटरनेशनल से जुडी दुनिया की किसी भी कम्युनिस्ट पार्टी को कार्यक्रम की आवश्यकता ही नहीं थी, चूंकि एक तो स्टालिन १९२५-२७ की चीनी क्रांति में अपनी नीतियों की शर्मनाक विफलता के बाद बारम्बार अपनी लाइन बदलता जा रहा था और दूसरे स्टालिन के आदेश कम्युनिस्ट पार्टियों पर उनकी इच्छा के विपरीत जबरदस्ती थोपे जा रहे थे. चीनी क्रांति की विफलता इन्ही निर्देशों का सीधा परिणाम थी. सीपीआई की आलोचना करते हुए श्याम सुन्दर स्टालिन का जिक्र तक नहीं करते.सीपीआई की नीतियां गलत थीं, इतना कहकर वे रुक जाते हैं, बिना यह बताये कि ये नीतियाँ सीपीआई की नहीं बल्कि स्टालिन की थीं. इस लुका-छिपी में वे यह भी नहीं बताते कि सीपीआई की वे कौन सी बुनियादी नीतियाँ हैं, जो गलत थीं और वे क्यों गलत थीं. ऐसा इसलिए कि श्यामजी स्टालिनवाद की जमीन को सीपीआई के साथ साँझा करते रहे हैं और आज भी कर रहे हैं और सीपीआई का कार्यक्रम जिस पर श्यामजी सिर्फ झूठी फुंकार मारते हैं, डंक नहीं, स्टालिनवाद के अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम का हिस्सा मात्र है.
भगत सिंह की विरासत के सवाल पर, सीपीआई और प्रेक्सिस कलेक्टिव, को चुनौती देते हुए श्यामसुन्दर यह भूल जाते है कि वे खुद उसी जमीन पर खड़े है जिस पर सीपीआई और प्रेक्सिस खड़े हैं. सीपीआई और प्रेक्सिस की ही तरह श्यामजी भी, अक्टूबर क्रांति के सबकों को अनदेखा करके, क्रांति के “दो चरणों वाले” फ़ॉर्मूले को ढोने वाले मेंशेविकों और स्टालिनवादियों का समर्थन कर रहे हैं. चीन और भारत, दोनों में क्रांति के “जनवादी चरण” के नाम पर स्टालिन पूंजीपति वर्ग को प्रगतिशील भूमिका दे रहा था और उन्हें क्रांति के सहभागी बता रहा था. इस आधार पर वह ट्रोट्स्की की इस नीति का विरोध कर रहा था कि चीन और भारत दोनों में सर्वहारा को किसानो के साथ मिलकर अपने वर्ग अधिनायकत्व की स्थापना करनी चाहिए, पूंजीपति वर्ग और उसकी पार्टियों, चीन में कोमिन्तांग और भारत में कांग्रेस, के खिलाफ सत्ता के लिए लड़ना चाहिए. श्यामजी का राजनीतिक गुरु स्टालिन, न सिर्फ राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग बल्कि साम्राज्यवादी ब्रिटेन और अमेरिका के साथ भी मोर्चा बनाये हुए था और चीन तथा भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों को जबरन, उनकी इच्छा के विरुद्ध, साम्राज्यवादी और राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग की बाँहों में धकेल रहा था. स्टालिन ने पूंजीवाद के फासिस्ट गुर्गे, हिटलर तक के साथ मिलकर १९३९ में मोर्चा बनाया था.
स्टालिन के पुजारी श्यामजी को भगत सिंह का नाम लेते हुए भी शर्म आनी चाहिए. मगर वह तो दो उलटी दिशाओं में जा रही नावों पर, सवारी गांठने की फ़िराक में हैं, समझा जा सकता है कि उनका क्या हश्र होने वाला है.
भगत सिंह, दरअसल वही कह रहा था, जो उस वक़्त ट्रोट्स्की कह रहा था, और ट्रोट्स्की वही कह रहा था जो लेनिन ने कहा था- ‘पूंजीपति वर्ग और उसकी पार्टियों से बिना शर्त और पूरी तरह संबध विच्छेद’, और ‘पूंजीपतियों के खिलाफ मजदूर किसानो का संश्रय’. मगर स्टालिन और उसका अनुसरण करने वाली सीपीआई, न सिर्फ भारत के पूंजीपतियों बल्कि औपनिवेशिक ब्रिटिश पूंजीपतियों की खुली दलाली कर रहे थे और उनके साथ चिपके थे, मजदूर किसानो को पूंजीपति वर्ग के हाथों गिरवी रख रहे थे और राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन का खुला विरोध कर रहे थे. स्टालिन और माओ की राजनीति का समर्थन करने वाले श्यामजी,झूठमूठ ही भगत सिंह का नाम लेते हैं, सीपीआई की आलोचना सतही या गैर-मुद्दों पर करते हैं, और इस बात पर जानबूझकर पर्दा डाल देते हैं कि सीपीआई सीधे स्टालिन के निर्देशों और उसकी रणनीति के तहत काम कर रही थी. वे इस पर बात ही नहीं करते कि भगत सिंह के वक़्त स्टालिन और उसके तहत कोमिन्तेर्ण की नीति क्या थी. ऐसा वे इसलिए करते हैं चूंकि वे खुद भी स्टालिन और उसकी राजनीति के पक्के अनुयायी हैं, स्टालिन की क्रांति को चरणों में बांटकर देखने की बोगस नीति का समर्थन करते हैं और लेनिन,ट्रोट्स्की और भगत सिंह की नीति के ठीक उलट खड़े हैं. भगत सिंह ब्रिटिश सत्ता को उलटने की बात कर रहा था मगर स्टालिन ने सीपीआई को ब्रिटिश सत्ता का समर्थन करने के निर्देश दिए, भगत सिंह भारत में मजदूर किसानो का राज कायम करने की बात कर रहा था,मगर स्टालिन ने भारत में नेहरु की अगुवाई में बनी पूंजीपति वर्ग की सत्ता से गठजोड़ बना लिया और उसे प्रगतिशील बताया. इसी मेन्शेविक-स्तालिनवादी राजनीति के लिए अपने समर्थन को छिपाते हुए श्यामजी, लेनिन के १९०५ के उन उद्धरणों को ऐतिहासिक सन्दर्भ से काटकर प्रस्तुत करते हैं, जिन्हें इतिहास ने ही नहीं, खुद लेनिन ने बार-बार और बिलकुल दूसरी तरह व्याख्यायित किया है.
श्याम सुन्दर अपने को भगत सिंह की विचारधारा का अनुयायी घोषित करते हैं, मगर दूसरी ही सांस में यह घोषणा करते हैं कि ‘मैंने अपनी पुस्तक में सत्ता हस्तांतरण के बाद पूंजीपति वर्ग की सत्ता के खिलाफ समाजवादी क्रांति के नारे को ही मार्क्सवादी-लेनिनवादी शिक्षाओं के अनुरूप बताया है’. यह कहते हुए वे भूल जाते हैं कि भगत सिंह क्रांति को श्याम सुन्दर और उसके गुरु स्टालिन की तर्ज़ पर जनवादी-समाजवादी दो स्तरों में नहीं बाँट रहा था. यही वह मूल विवाद था जिस पर ट्रोट्स्की स्टालिन के विरुद्ध जूझ रहा था और भगत सिंह सीपीआई से अलग खड़ा था.
दरअसल श्यामजी की फिसड्डी और अवसरवादी राजनीति का भगत सिंह की क्रान्तिकारी राजनीति से लेश मात्र भी मेल नहीं है, बल्कि वे एक दूसरे के उलट खड़ी हैं. जहाँ भगत सिंह मजदूर-किसान संश्रय पर आधारित सर्वहारा की सतत क्रांति को समाजवादी क्रांति कह रहा है, वहीं श्यामजी समाजवादी क्रांति की बात क्रांति की दूसरी मंजिल के रूप में कर रहे हैं, जिसे १९४७ में पूंजीपति वर्ग के हाथ में सत्ता जाने के बाद, अभी जन्म लेना है.
भगत सिंह की विरासत से जुड़ने के लिए श्यामजी को, पहले मेंशेविज्म और स्टालिनवाद से निर्णायक रूप से सम्बन्ध विच्छेद करना चाहिए और फिर खुद अपने स्तालिनवादी अतीत की खुली आलोचना करनी चाहिए, बजाय यह झूठा दंभ भरने के, कि वे पहले भी सही थे और आज भी सही हैं. न वे पहले सही थे, न आज सही हैं. श्यामजी, एस.यू.सी.आई से औपचारिक तौर पर भले ही अलग हो गए हों, मगर वे आज भी उसकी फर्जी स्तालिनवादी-माओवादी राजनीति के दलदल से उबर नहीं पाए हैं, उसी में हाथ-पैर चला रहे हैं.
अब हम,ऊपर लेख में दी गयी अपनी प्रस्थापनाओं का सार संक्षेप करते हैं:
१. क्रांति एक अनवरत प्रक्रिया है, जो सर्वहारा के सत्ता में आ जाने के साथ शुरू होती है. सत्ता पलट से क्रांति संपन्न नहीं होती, बल्कि शुरू होती है.
२. क्रांति का स्वरुप सीधे इस बात पर निर्भर करता है कि उसमें हिस्सा लेने वाली वास्तविक सामाजिक शक्तियां कौन सी हैं. उत्पादक शक्तियों के विकास का स्तर, क्रांति के अंतर्य और उसके स्वरूप को भी केवल बाह्य परिमाण में ही परिसीमित करता है.
३. यह निश्चित भविष्यवाणी नहीं की जा सकती कि किसी विशिष्ट समय पर शुरू हुई क्रांति में कौन सी शक्तियां हिस्सा लेंगी और उनके बीच शक्ति संतुलन क्या होगा और इसलिए क्रांति के स्वरूप का पूर्व-निर्धारण नहीं किया जा सकता.
४. सर्वहारा का सत्ता में आना क्रांति के आरंभ और विकास की अनिवार्य शर्त है.
५. क्रांति किसी भी चरण में हो और वह किन्ही भी चरणों से गुज़रे, सर्वहारा अधिनायकत्व का प्रकट होना और कायम रहना, क्रांति के कायम रहने की पूर्वशर्त है.
६. पूंजीपति वर्ग का सत्ता में आना क्रांति का नहीं प्रतिक्रांति का द्योतक है.
७. पिछड़े देशों में,जहाँ क्रांति का मुख्य अंतर्य अभी कृषि क्रांति ही है, किसान वर्ग महत्त्वपूर्ण कारक है और क्रांति की संचालक शक्तियों में से एक है.
८. साम्राज्यवाद की दशाओं में, किसान वर्ग, उसकी संहति चाहे कुछ भी हो, क्रांति में न तो स्वतन्त्र और न नेतृत्वकारी भूमिका अदा कर सकता है. वह या तो पूंजीपति वर्ग या फिर सर्वहारा को केवल संश्रय दे सकता है.
९. किसान वर्ग की भूमिका स्वतंत्र न होने का अर्थ है उसकी अनुवर्ती और दोहरी भूमिका. यदि वह पूंजीपति के पीछे जाता है तो वह प्रतिक्रांतिकारी भूमिका अदा करेगा; यदि वह सर्वहारा का अनुकरण करता है तो वह क्रांतिकारी भूमिका अदा करेगा.
१०. कृषि प्रधान देशों में सर्वहारा सिर्फ कृषि क्रांति के एजेंट के बतौर, किसान वर्ग के संश्रय पर आधारित होकर ही सत्ता में आ सकता है. इसलिए इन देशों में सर्वहारा और पूंजीपति वर्ग के बीच सत्ता संघर्ष वास्तव में किसान वर्ग पर नेतृत्व के लिए संघर्ष में परिलक्षित होगा.
११. पिछड़े हुए देशों में क्रान्तिकारी सत्ता का स्वरुप, मजदूर-किसान आश्रय पर आधारित सर्वहारा का जनवादी अधिनायकत्व होगा, जबकि उन्नत पूंजीवादी देशों में यह सर्वहारा का समाजवादी अधिनायकत्व होगा. मगर दोनों ही दशाओं में होगा यह सर्वहारा का एकल अधिनायकत्व ही,उसका आश्रय कुछ भी हो या न हो.
१२. १९०५ में असफलता से शुरू हुई और फरवरी १९१७ में फिर असफलता से होती हुई अक्टूबर १९१७ में सफल रूस की सर्वहारा क्रांति एक ही क्रांति का अनवरत सिलसिला है.
१३. अक्टूबर क्रांति,क्रांति की कोई अलग मंजिल या चरण नहीं थी, बल्कि उसी जनवादी क्रांति के ही आगे बढ़ने का सिलसिला थी जो पहले १९०५ और फिर फरवरी १९१७ में सफल नहीं हो सकी थी.
१४. फरवरी १९१७ में सर्वहारा के सत्ता में आ जाने के लिए तमाम वस्तुगत परिस्थितियां मौजूद थीं. मगर सर्वहारा को क्रान्तिकारी कार्यक्रम से लैस न कर पाने, सोवियतों के अन्दर मेंशेविकों के खिलाफ संघर्ष न चलाने, और सोवियतों की सत्ता के लिए अस्थायी पूंजीवादी सरकार के खिलाफ न लड़ने की बोल्शेविक नीति के चलते, सर्वहारा सत्ता नहीं ले सका.
१५. फरवरी १९१७ में पूंजीपति वर्ग ने सत्ता में आकर क्रांति पर तेजी से ब्रेक लगा दी और फिर उसे दबा दिया.
१६. लेनिन ने अप्रैल थीसिस के जरिये पार्टी का पुनर्शस्त्रीकरण किया, और सोवियतों में मौजूद मजदूर किसान संश्रय पर आधारित सर्वहारा अधिनायकत्व का नारा दिया. यही ट्रोट्स्की की “सतत क्रांति” की थीसिस थी.
१७. नई बोल्शेविक नीति से लैस होकर, अक्टूबर में वही दबी हुई क्रांति अपनी पूरी शक्ति समेटकर बाहर आई और उसने पूंजीपति वर्ग की सत्ता को नष्ट करते हुए क्रांति पर लगी ब्रेक को हटा दिया और मजदूर-किसान सोवियतों में मौजूद मजदूर-किसान संश्रय पर आधारित होकर सर्वहारा के अधिनायकत्व वाली सत्ता को स्थापित किया जिसे स्थापित करने में फरवरी क्रांति असफल रही थी.
१८. लेनिन का नारा -“मजदूर-किसानो का क्रान्तिकारी जनवादी अधिनायकत्व” सही है. मगर यह इस प्रश्न को खुला छोड़ देता है कि इस संश्रय में वास्तविक प्रभुत्व, और इसलिए वास्तविक अधिनायकत्व किसका होगा. फरवरी क्रांति की असफलता ने नकारात्मक रूप से और अक्टूबर की सफलता ने सकारात्मक रूप से इस नारे को“किसान वर्ग द्वारा समर्थित सर्वहारा के अधिनायकत्व” के तौर पर प्रतिष्ठित किया.यही ट्रोट्स्की की सतत क्रांति की थीसिस की धुरी है और यही लेनिन की अप्रैल थीसिस का सार है.
१९. क्रांति को जनवादी और समाजवादी दो अलग मंजिलों में नहीं बांटा जा सकता, ये एक ही क्रांति के दो रंग हैं, जो सर्वहारा के एकल अधिनायकत्व से बंधे हैं. जनवाद और समाजवाद के कार्यभार भी साम्राज्यवाद की परिस्थितियों में आपस में गुंथ गए हैं, जिन्हें अलग नहीं किया जा सकता.
२०. क्रांति का दो मंजिलों वाला सिद्धांत, जो पिछड़े देशों में क्रांति की प्रारंभिक जनवादी यात्रा को अलग जनवादी मंजिल बताते हुए उसमें “सर्वहारा के एकल अधिनायकत्व” का विरोध करता है,बुनियादी तौर पर मेन्शेविक प्रस्थापना है, जिससे लेनिन ने अपने को फरवरी क्रांति की शुरुआत में ही अलग कर लिया था. लेनिन के “सुदूर से पत्र” और “अप्रैल थीसिस” इस अलगाव को ही परिलक्षित करते हैं. दो मंजिलों वाले इस कालग्रस्त सिद्धांत को,स्टालिन ने, लेनिन की मृत्यु के बाद पुनर्जीवित कर दिया था. स्टालिन और फिर माओ ने इसी सिद्धांत का अनुकरण किया और राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग को, नव-जनवादी क्रांति,लोक-जनवादी क्रांति जैसे दर्जनों झूठे, भ्रामक नारों के तहत क्रांति का सहभागी घोषित कर दिया और उसके साथ सत्ता सांझी करने की खुली वकालत की. दो मंजिलों वाली इस मेंशेविक प्रस्थापना ने विश्व समाजवादी क्रांति के लेनिन के कार्यक्रम को पलीता लगाते हुए, चीन से भारत तक दर्जनों क्रांतियों को तबाह कर दिया, सर्वहारा क्रांति की आक्रामक बढ़त को रोक दिया और मरणासन्न विश्व पूंजीवाद को पुनर्जीवित और पुनर्स्थापित कर दिया.
२१. अलग अलग देशों में प्रकट होने वाली क्रांतियाँ, एकल विश्व समाजवादी क्रान्ति का अनवरत सिलसिला हैं जो अपने विकास क्रम में दर्जनों चरणों से गुजरते हुए, आगे पीछे होती हुई, विकसित होती है, और जिनका समेकित उद्देश्य है -विश्व समाजवाद की स्थापना.
२२. अलग अलग देशों में क्रांतियाँ केवल अपने बाह्य स्वरूप में ही राष्ट्रीय हैं, मगर उनका अंतर्य अंतर्राष्ट्रीय है. इसका अर्थ है कि राष्ट्रीय क्रांतियाँ, अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी क्रांति के अवयव मात्र हैं. अलग अलग देशों में क्रांतियों के भाग्य का निर्णय प्रथमतः और मुख्यतः अन्तर्राष्ट्रीय कारकों से ही होगा और राष्ट्रीय विशिष्टताएं उसमें गौण भूमिका अदा करेंगी.
२३. दुनिया के असमान विकास के चलते, अलग अलग देशों में क्रांति का स्वरूप और अंतर्य, उसकी संचालक शक्तियां और वर्ग संतुलन और क्रांति के कार्यभार भी, एक दूसरे से अलग रहेंगे, मगर विश्व पूंजीवाद के समेकित विकास के चलते ये सभी क्रांतियाँ सर्वहारा के अधिनाकत्व में ही होंगी और अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी क्रांति का अभिन्न हिस्सा होंगी.
२४. अलग अलग देशों में क्रांतियों और क्रान्तिकारी सत्ताओं को, एक दूसरे के पीछे ठीक उन्ही चरणों से नहीं गुजरना होगा जिनसे अतीत की क्रांतियाँ या सत्ताएं गुजरी है, बल्कि अतीत की क्रांतियाँ वे पूर्वाधार तैयार कर देंगी जिसके चलते भावी क्रान्तियाँ बहुत से चरणों को लांघ जाने में समर्थ होंगी. मसलन, भावी क्रांतियों के लिए फरवरी १९१७ को दोहराना जरूरी नहीं होगा.
२५. विश्व पूंजीवाद का विकास, किसान वर्ग के ह्रास और सर्वहारा की वृद्धि में लक्षित हो रहा है, जो विश्व सर्वहारा क्रांति और उसके विकास की अबाध संभावनाओं को वस्तुगत रूप से और भी मजबूत बना रहा है.
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